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बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135
आईएसबीएन :9781613010433

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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

विश्वमोहन ने रुखाई से दो शब्दों में उत्तर दिया—गाड़ी लेट है।

सोना ने फिर छेड़ा—अब कब जाओगे?

विश्वमोहन ने एक तीव्र दृष्टि पत्नी पर डाली और कठोर स्वर में बोले—गाड़ी तीन घंटे बाद जायगी, तब चला जाऊँगा।

सोना फिर नम्रता से बोली—तो इस प्रकार बैठे कब तक रहोगे? मैं खाट बिछाए देती हूँ, आराम से लेट जाओ।

‘तुम्हें कष्ट करने की आवश्यकता नहीं। मैं बहुत अच्छी तरह हूँ’, विश्वमोहन ने कड़े स्वर में रुखाई से कहा। सोना के बहुत आग्रह करने पर विश्वमोहन ने कमरे में पैर रखा; न वे कुछ बोले और न खाट पर ही लेटे, कुर्सी पर बैठ गये। एक पुस्तक उठाकर उसके पन्ने उलटने लगे। पढ़ने के नाम से कदाचित एक अक्षर भी न पढ़ सके! किन्तु इस प्रकार वे अपनी अन्तर्वेदना को चुपचाप लहू की घूँट की तरह पी रहे थे। सोना का आचरण उन्हें हजार-हजार बिच्छुओं के दंश की तरह पीड़ा पहुँचा रहा था। पति की आंतरिक वेदना सोना से छिपी न थी। वह ज़रा खिसक कर उनके पास बैठ गयी। धीरे-से उसने अपना सिर विश्वमोहन के पैर पर धर दिया, बोली—इस बार मुझे माफ़ करो, अब तुम जो कुछ कहोगे मैं वही करूँगी, मुझसे नाराज़ न होओ।

विश्वमोहन के पैरों पर जैसे किसी ने जलती हुई आग धर दी हो। जल्दी से उन्होंने अपने पैर समेट लिये और तिरस्कार के स्वर में बोले—यह बात आज तुम पहिली ही बार कर रही हो? यह मौखिक प्रतिज्ञा है, हार्दिक नहीं। मैं सब जानता हूँ। तुम्हारे कारण तो मैं शहर में सिर उठाने लायक नहीं रहा। जिधर जाओ उधर लोग तुम्हारी चर्चा करते हुए देख पड़ते हैं। मेरे-तुम्हारे मुँह पर कोई कुछ नहीं कहता तो क्या हुआ? बाद में तो कानाफूसी करते हैं। तुम्हारे ऊपर तो जैसे इसका कोई असर ही नहीं पड़ता। जो जी में आता है, करती हो। भला, वह शोहदा तुम्हारे पास बटन टँकवाने क्यों आया? क्या तुम इन्कार न कर सकती थी? तुम यदि शह न दो तो कैसे कोई तुम्हारे पास आवे?

सोना ने भय-कातर दृष्टि से पति की ओर देखते हुए कहा—ज़रा सा तो काम था। पड़ोसी धर्म के नाते, मैंने सोचा कि कर ही देना चाहिए। नहीं तो इन्कार क्यों नहीं कर सकती थी।

‘इसी प्रकार ज़रा-ज़रा सी बातों से बड़ी-बड़ी बातें भी हो जाया करती हैं। निभाया करो पड़ोसी धर्म मगर मेरी इज़्ज़त का ख़याल मत करना!’ कहते हुए विश्वमोहन बाहर चले गये, साइकिल उठायी और स्टेशन चल दिये।

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