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बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135
आईएसबीएन :9781613010433

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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

इन सब बातों को देखकर और सोना की सुकुमारता को देखते हुए सोना की माँ नन्दो ने निश्चय कर लिया था कि मैं अपनी सोना का विवाह शहर में ही करूँगी। मेरी सोना भी पैरों में पतले-पतले लच्छे और काले-काले स्लीपर पहिनेगी। चौड़े किनारे की सफेद सारी और लेस लगा हुआ जाकेट पहिन कर वह कितनी सुन्दर लगेगी, इसकी कल्पना मात्र से ही नन्दो हर्ष से विह्वल हो जाती। किन्तु सोना को कुछ ज्ञान न था; वह तो अपने देहाती जीवन में ही मस्त थी। वह दिन भर मधुबाला की तरह स्वच्छन्द फिरा करती। कभी-कभी वह समय पर खाना खाने आ जाती और कभी-कभी तो खेल में खाना भी भूल जाती। सुन्दर चीजें इकट्ठी करने और उन्हें देखने का उसे व्यसन-सा था। गाँव में अपनी जोड़ की कोई लड़की उसे न मिलती। इसीलिए किसी लड़की से उसका अधिक मेल-जोल न था। नन्दो को सोना की यह स्वच्छन्दता-प्रियता पसन्द न थी। किन्तु वह सोना को दबा भी न सकती थी। वह जब कभी सोना को इसके लिए कुछ कहती तो तिवारी जी उसे आड़े हाथों लेते, कहते—लड़की है, पराये घर तो उसे जाना ही पड़ेगा, क्यों उसके पीछे पड़ी रहती हो? जितने दिन है, खेल-खा लेने दो। कुछ तुम्हारे घर जन्म-भर थोड़े बनी रहेगी।

लाचार नन्दो चुप हो जाती।

धीरे-धीरे सोना ने बारह वर्ष पूरे करके तेरहवें में पैर रखा। किन्तु तिवारी जी का इस तरफ ध्यान ही न था। एक दिन नन्दो ने उन्हें छेड़ा—सोना के विवाह की भी कुछ फिकर है?

तिवारी जी चौंक-से उठे, बोले—सोना का विवाह? अभी वह है कै साल की?

किन्तु यह कितने दिनों चल सकता था। लड़की का विवाह तो करना ही पड़ता। वैसे तो गाँव में ही कई ऐसे लड़के थे जिनसे सोना का विवाह हो सकता था। किन्तु नन्दो और तिवारी जी दोनों ही सोना का विवाह शहर में करना चाहते थे। शहर के जीवन का सुनहला सपना रह-रह के उनकी आँखों में छा जाता था। उन्होंने जानकी और नारायण से शहर में कोई योग्य वर तलाश करने के लिए कहा।

इधर सोना बारह साल की हो जाने पर भी निरी बालिका ही थी। अब भी वह राजा-रानी का खेल खेला जाता। सुन्दर फूल-पत्तियाँ अब भी इकट्ठी की जातीं और तितलियों के पीछे अब भी उसी प्रकार दौड़ लगाती। सोना के अंग-प्रत्यंग में धीरे-धीरे यौवन का प्रवेश प्रारम्भ हो चुका था; किन्तु सोना को इसका ज्ञान न था। उसके स्वभाव में अब भी वही लापरवाही, वही अल्हड़पन और भोलापन था, जो आठ साल की बालिका के स्वभाव में मिलेगा।

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