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बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135
आईएसबीएन :9781613010433

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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

ग्रामीणा

पंडित रामधन तिवारी को परमात्मा ने सब कुछ दिया था; किन्तु सन्तान के बिना उनका घर सूना था। धन-धान्य से भरा-पूरा घर उन्हें जंगल की तरह जान पड़ता। संतान की लालसा से उन्होंने न जाने कितने जप-तप और विधान करवाये और अन्त में उनकी ढलती उम्र में पुत्र तो नहीं एक पुत्री का जन्म हुआ। इस समय तिवारी जी ने खूब खुले हाथों खर्च किया। सारे गाँव को प्रीति-भोज दिया। महीनों घर में ढोलक ठनकती रही। कन्या ही सही पर इसके जन्म ने तिवारी जी के निष्पुत्र होने के कलंक को धो दिया था। कन्या का रंग गोरा-चिट्टा, आँखें बड़ी-बड़ी, चौड़ा माथा और सुन्दर सी नासिका थी। उसके बाल घने, काले और असंख्य नन्हें-नन्हें छल्लों की भाँति सिर पर बड़े ही सुहावने लगते थे। उसका नाम रखा गया—सोना। सोना का लालन-पालन बड़े लाड़-प्यार से होने लगा।

जब सोना सात साल की हुई तो घर में एक मास्टर लगाकर तिवारी जी ने सोना को हिन्दी पढ़वाना प्रारंभ किया और थोड़े ही समय में सोना ने रामायण, महाभारत इत्यादि धार्मिक पुस्तकें पढ़ना सीख लिया। गाँव के सभी लोगों ने सोना की कुशाग्र बुद्धि की तारीफ की। इसके आगे, अधिक पढ़ाकर तिवारी जी को कन्या से कुछ नौकरी तो करवानी न थी, इसलिए सोना का पढ़ना बन्द करवा दिया गया।

अब सोना नौ साल की सुकुमार सुन्दर बालिका थी। उसकी सुन्दरता और सुकुमारता को देखकर गाँव वाले कहते—तिवारी जी! तुम्हारी लड़की तो देहात के लायक नहीं है। इसका विवाह तो भाई, कहीं शहर में ही करना। सुनते हैं, शहर में बड़ा आराम रहता है।

इधर तिवारी जी की बहिन जानकी जिसका विवाह हुआ तो गाँव में ही था किंतु कुछ ही दिन से शहर में जाकर रहने लगी थी। जब कभी शहर से चौड़े किनारे की सफेद सारी, आधी बाँह का लेस लगा हुआ जाकेट, टिकली की जगह माथे पर लाल ईंगुर की बिन्दी और पैरों में काले-काले स्लीपर पहिन कर आती तो सारे गाँव की स्त्रियाँ उसे देखने के लिए दौड़ी आतीं। गाँव के तरुण-जीवन में उसका आदर था और बूढ़ों की आँखों में वह खटकती थी; किन्तु फिर भी वह सब के लिए नयी चीज़ थी जानकी के पति नारायण ने भी मिल में नौकरी कर ली थी। उसे बीस रुपये माहवार मिलते थे। वह अब देहाती न था, सोलह आने शहर का बाबू बन गया था। धोती की जगह ढीला पाजामा, कुरते की जगह कमीज, वास्कट और कोट, पगड़ी की जगह काली टोपी और पैरों में पम्प शू पहिनता था। जब कभी गाँव में जाता कान में इत्र का फाहा ज़रूर रहता। कभी हिना, कभी खस की मस्त खुशबू से बेचारे देहाती हैरान हो जाते। उन्हें अपने जीवन से शहर का जीवन बड़ा ही सुखमय और शान्तिदायक मालूम होता।

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