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बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135
आईएसबीएन :9781613010433

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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

निरंजन बहुत नम्र प्रकृति के पुरुष थे और विशेष कर स्त्रियों के साथ वे और भी नम्रता से पेश आते। यही कारण था कि वे वीणा का आग्रह न टाल सके। कई बार जाने का निश्चय कर के भी वे न जा सके, किन्तु आज वीणा ने सोचा कि अब मैं इन्हें कदापि न रोकूँगी, जाने ही दूँगी। मैं जानती हूँ कि उनका जाना मुझे अखरेगा, परन्तु यह कहाँ का न्याय है कि मैं अपने स्वार्थ के लिए पति-पत्नी को अलग-अलग रहने के लिए बाध्य करूँ। न! अब यह न होगा। जो बीतेगा वह सहूँगी, पर उन्हें अब न रोकूँगी।

दूसरे दिन समय पर ही निरंजन आये। वीणा उन्हें ड्राइंग रूम में ही मिली। उन्हें देखते ही उठकर हँसती हुई बोली (यद्यपि उसकी वह हँसी ओंठों तक ही थी, उसकी अन्तरात्मा रो रही थी। उसे ऐसा जान पड़ता था कि निरंजन के जाते ही उसे उन्माद हो जायगा)— कहिए निरंजन जी, आपने जाने की तैयारी कर ली?

निरंजन ने नम्रता से कहा—जी नहीं! मैं आज कहाँ जा रहा हूँ? मैं तो जब तक आपकी रुबाइयों का अनुवाद न हो जायगा, तब तक यहीं रहूँगा।

वीणा बोली—मेरी तो सब रुबाइयों का अनुवाद हो गया। आप देख लीजिए।

आश्चर्य से निरंजन ने पूछा—सच! मालूम होता है आपने रात को बहुत मेहनत की है।

वीणा—हाँ, मेहनत तो जरूर की है; किन्तु आपको आज जाना भी तो है। अब आप इन्हें देख लीजिए; दो-तीन घंटे का काम है। बस।

निरंजन मुस्कराते हुए बोले—क्यों, आप मुझसे नाराज हो गयीं क्या? आप मुझे इतनी जल्दी क्यों भेजना चाहती हैं? आराम के साथ चला जाऊँगा।

वीणा ने निरंजन पर एक मार्मिक दृष्टि डालते हुए कहा—निरंजन जी! मैं नाराज़ होऊँगी आपसे? क्या आपका हृदय इस पर विश्वास कर सकता है। मैं तो जानती हूँ कभी न करेगा; किन्तु जिस प्रकार आप इतने दिनों तक मेरे आग्रह से रहे, उसी प्रकार मेरे अनुरोध से आप आज रात की गाड़ी से चले जाइए।

निरंजन ने दृष्टि उठाकर एक बार वीणा की ओर देखा; फिर वह अनुवाद की हुई रुबाइयों को देखने लगे।

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