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बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135
आईएसबीएन :9781613010433

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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

पत्र पढ़ते-पढ़ते कई बार वीणा के चेहरे पर विषाद की एक झलक आयी और चली गयी। पढ़ने के पश्चात् पत्र को उसने चुपचाप निरंजन की ओर बढ़ा दिया। निरंजन ने पत्र लेकर जेब में रख लिया। कुछ क्षण तक दोनों चुपचाप बैठे रहे। फिर वही रोज़ का कार्य-क्रम उमर-ख़ैयाम की रुबाइयों का अनुवाद आरंभ हो गया। निरंजन शान्त और अविचल थे। किन्तु वीणा स्वस्थ न थी। आज वह रुबाइयों को न तो ठीक तरह से पढ़ ही सकती थी और न उनका अनुवाद ही कर सकती थी। निरंजन से वीणा की मानसिक अवस्था छिपी न रह सकी। उन्होंने कहा—आज आप अनुवाद का काम रहने ही दें; कल हो जायगा। चलिए, थोड़ी देर ग्रामोफ़ोन सुनें।

बाजे में चाबी भर दी गयी। रेकार्ड चढ़ा दिया गया। इन्दुबाला का गाना था—‘‘साजन तुम काहे को नेहा लगाए।’’ एक दो तीन—वीणा ने बार-बार इसी रेकार्ड को बजाया। तब तक वीणा के पति कुंजबिहारी आफिस से लौटे। बोले—वीणा, तुमसे कितनी बार कहा कि इतनी मेहनत मत किया करो, पर तुम नहीं मानतीं। ज़रा अपना चेहरा तो जाकर शीशे में देखो, कैसा हो रहा है।

वीणा कुछ न बोली। निरंजन ने कहा—जी हाँ, यही बात तो मैं भी इनसे कर रहा था कि आप इतनी मेहनत न करें। सब होता रहेगा।

उस दिन निरंजन के जाने के बाद वीणा ने रात भर जाग कर सारी रुबाइयों का अनुवाद कर डाला। अब केवल एक बार देख लेने ही की आवश्यकता थी। निरंजन की पत्नी का पत्र पढ़ लेने के बाद वीणा अपने आप ही अपनी नज़रों में गिरने लगी। उसे ऐसा मालूम होता था कि निरंजन के प्रति उसका प्रेम स्वार्थ पूर्ण है। क्योंकि उसे उनका साथ अच्छा लगता है, इसलिए वह उन्हें अपने दुराग्रह से रोके जा रही है। निरंजन की पत्नी की नम्रता एवं उसके शील और विश्वास के सामने वीणा अपनी दृष्टि में स्वयं ही बहुत हीन जँचने लगी।

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