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बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135
आईएसबीएन :9781613010433

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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

अनुरोध

‘‘कल रात को मैं जा रहा हूँ।’’

‘‘जी नहीं, अभी आप न जा सेकेंगे,’’—आग्रह, अनुरोध और आदेश के स्वर में वीणा ने कहा।

निरंजन के ओठों पर हल्की मुस्कराहट खेल गयी। फिर बिना कुछ कहे ही उन्होंने अपने जेब से एक पत्र निकाल कर वीणा के सामने फेंक दिया और शान्त स्वर में बोले—मुझे तो कोई आपत्ति नहीं। आप इस पत्र को पढ़ लीजिए। इसके बाद भी यदि आपकी यही धारणा रही कि मैं न जाऊँ तो जब तक आप न कहेंगी मैं न जाऊँगा।

वीणा ने सिर हिलाते हुए कहा—जी नहीं, रहने दीजिए, मैं कोई पत्र-वत्र न पढूँगी और न आपको जाने दूँगी।

हल्की मुस्कुराहट के साथ निरंजन ने पत्र उठा लिया और बोले—आप न पढ़ना चाहें तो भले ही न पढ़ें पर...

उनकी बात को काटते हुए वीणा ने कहा—अच्छा लाइए, जरा देखूँ तो सही, किसका पत्र है? पत्र लेखक मेरा कोई दुश्मन ही होगा जो इस प्रकार अनायास ही आपको मुझसे दूर खींच ले जाना चाहता है।

निरंजन हँस पड़े और हँसते-हँसते बोले—पत्र पढ़ लेने के बाद लेखक को शायद आप अपना दुश्मन न समझ कर मित्र समझें।

वीणा ने विरक्ति के भाव से कहा—जी नहीं, यह हो ही नहीं सकता। जो आपको मुझसे दूर खींच ले जाना चाहे, वह कोई भी हो, मैं तो उसे अपना दुश्मन ही कहूँगी।

निरंजन ने कहा- सच! पर आप ऐसा क्यों सोचती हैं?

वीणा ने निरंजन की बात नहीं सुनी। वह तो पत्र पढ़ रही थी, जिसमें लिखा था—

‘‘मेरे प्राण...

एक महीना पहिले तुम्हारा पत्र आया था। तुमने लिखा था कि यहाँ का काम एक-दो दिन में निपटा कर रविवार तक अवश्य आ जाऊँगा। इसके बाद सोचो तो कितने रविवार निकल गये। रोज़ तुम्हारा रास्ता देखती रहती हूँ। उधर से आने वाली हर एक ट्रेन के समय उत्सुकता से कान दरवाजे पर ही लगे रहते हैं। ऐसा मालूम होता है कि अब ताँगा आया! अब दरवाजे पर रुका! और अब तुम, मेरे प्राण, आकर मुझे...क्या कहूं। मैं जानती हूँ कि तुम अपना समय कहीं व्यर्थ ही नष्ट न करते होओगे; किन्तु फिर भी जी नहीं मानता। यदि पंख होते तो उड़कर तुम्हारे पास पहुँच जाती। तुम कब तक आओगे? जीती हुई भी मरी से गयी-बीती हूँ।

जब दो पक्षियों को भी एक साथ देखती हूँ तो हृदय में हूक-सी उठती है। क्या यह लिख सकोगे कि कब तक मुझे प्रतीक्षा करनी पड़ेगी? वैसे तुम्हारी इच्छा, जब आना चाहो। पर मेरा तो जी यही कहता है कि पत्र के उत्तर में स्वयं ही चले आओ।

—तुम्हारी।’’

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