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बिखरे मोती
बिखरे मोती
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2009 |
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 7135
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आईएसबीएन :9781613010433 |
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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ
विजय की चोट गहरी थी, दशा बिगड़ती जा रही थी। जिस समय वह अपने जीवन की अन्तिम घड़ियाँ गिन रहा था उसी समय कोर्ट से ठाकुर साहब के लिए सम्मन आया। उन्हें कोर्ट में यह पूछने के लिए बुलाया गया था कि उनका आम का बगीचा असहयोगियों का अड्डा कैसे और किसके हुक्म से बनाया गया। ठाकुर साहब भी आनरेरी मजिस्ट्रेटी का इस्तीफ़ा, रायसाहिबी का त्यागपत्र जेब में लिये हुए कोर्ट पहुँचे। उनका बयान इस प्रकार था—
मेरा बगीचा असहयोगियों का अड्डा कभी नहीं रहा है क्योंकि मैं अभी तक सरकार का बड़ा भारी खैरख्वाह रहा हूँ। मुझे सरकार की नीति पर विश्वास था और अपने घर में बैठा हुआ मैं अखबारी दुनिया का विश्वास कम करता था। मुझे यकीन ही न आता था कि न्याय की आड़ में सरकार निरीह बालक स्त्रियों और पुरुषों पर कैसे लाठियाँ चलवा सकती है? परन्तु आज तो सारा भेद मेरी आँखों के ही आगे विषैले अक्षरों में लिख गया है। मेरा तो यह विश्वास हो गया है कि इस शासन-विधान में, जो प्रजा का हितकर नहीं है, अवश्य परिवर्तन होना चाहिए। हर एक हिन्दुस्तानी का धर्म है कि वह शासन-सुधार के काम में पूरा-पूरा सहयोग दे। मैं भी अपना धर्म पालन करने के लिए विवश हूँ, और यह मेरी रायसाहिबी और आनरेरी मजिस्ट्रेट का त्याग-पत्र है।
ठाकुर साहब तुरन्त कोर्ट से बाहर हो गये।
दूसरे ही दिन से उस अमराई में रोज ही कुछ आदमी राष्ट्रीय गाने गाते हुए गिरफ्तार होते। और साठ साल के बूढ़े ठाकुर साहब को, सरकार की इतने दिन की खैरख्वाही के पुरस्कार स्वरूप छै महीने की सख़्त सज़ा और पाँच सौ रुपये का जुरमाना हुआ। जुरमाने में उनकी अमराई नीलाम कर ली गयी। जहाँ हर साल बरसात में बच्चे झूला झूलते थे वहीं पर पुलिस के जवानों के रहने के लिए पुलिस-चौकी बनने लगी।
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