परिवर्तन >> बिखरे मोती बिखरे मोतीसुभद्रा कुमारी चौहान
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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ
ठाकुर साहब ने नम्रता से कहा—दरोगा जी, जरा सब्र रखिए, मैं अभी सबको यहाँ से हटवाये देता हूँ। आपको लाठियाँ चलवाने की नौबत ही क्यों आयेगी?
नियामत अली का पारा ११० पर तो था ही, बोले—फिर मैं आपको पहिले से आगाह कर देना चाहता हूँ कि ज्यादा से ज्यादा दस मिनट लगे, नहीं तो मुझे मजबूरन लाठियाँ चलवानी ही पड़ेंगी।
ठाकुर साहब ने घोड़े से उतर कर अमराई में पैर रखा ही था कि उनका सात साल का नाती विजय हाथ में लकड़ी की तलवार लिये हुए आकर सामने खड़ा हो गया। ठाकुर साहब को सम्बोधन कर बोला—दादा! देखो मेरे पास भी तलवार है; मैं भी बहादुर बनूँगा।
इतने में ही उसकी बड़ी बहिन कान्ती, जिसकी उमर करीब नौ साल की थी, धानी रंग की साड़ी पहिने आकर ठाकुर साहब से बोली—दादा! ये विजय लकड़ी की तलवार लेकर बड़े बहादुर बनने चले हैं। मैं तो दादा! स्वराज का काम करूँगी और चर्खा-चला कर देश को आजाद कर दूँगी। फिर बतलाओ, मैं बहादुर बनूँगी कि ये लकड़ी की तलवार वाले?
विजय की तलवार का पहिला वार कान्ती पर ही हुआ। उसने कान्ती की ओर गुस्से से देखते हुए कहा—देख लेना किसी दिन फाँसी पर न लटक जाऊँ तो कहना। लकड़ी की तलवार है तो क्या हुआ, मारा कि नहीं तुम्हें।
बच्चों की इन बातों में ठाकुर साहब क्षण भर के लिए अपने आपको भूल से गये। उधर दस मिनट से ग्यारह होते ही दरोगा नियामत अली ने अपने जवानों को लाठियाँ चलाने का हुक्म दे ही तो दिया। देखते-देखते अमराई में लाठियाँ बरसने लगीं। आज अमराई में ठाकुर साहब के भी बच्चे और युवक त्यौहार मनाने आये थे। उनकी थालियाँ राखी, नारियल, केशर, रोली, चन्दन और फूल-मालाओं से सजी हुई रखी थीं। किन्तु कुछ ही देर बाद वे थालियाँ, जिनमें रोली और चन्दन था, खून से भर गयीं।
जब पुलिस मजमे को तितर-बितर करके चली गयी तो देखा गया कि घायलों की संख्या करीब तीस की थी जिनमें अधिकतर बच्चे, कुछ स्त्रियाँ और सात-आठ युवक थे। विजय को सबसे ज्यादा चोट आयी थी। चोट तो कान्ती को भी थी, किन्तु विजय से कम। ठाकुर साहब का तो परिवार का परिवार ही घायल था। घायलों को उनके घरों में पहुँचाया गया और अमराई में पुलिस का पहरा बैठ गया।
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