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बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135
आईएसबीएन :9781613010433

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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

घर आकर देखा, पतिदेव स्कूल से लौटे थे। अम्माजी बड़े क्रोध में उनसे कह रही थीं—देखा नयी बहू के लच्छन। एक घड़ा पानी भरने गयी तो घंटे भर बाद लौटी और यहाँ पानी रखकर फिर दीवानी की तरह कुएँ की तरफ भागी। मैंने तो पहले ही कहा था कि शहर की लड़की न ब्याहो पर तुम न माने। बेटा, भला हमारे घर निभने के लच्छन हैं? और सब तो सब, पर जमींदार के लड़के से बात किये बिना इसकी क्या अटकी थी? यह इधर से भागी जा रही थी वह सामने से आ रहा था। उसने जाने क्या इसे दिया और इसने लेकर जेब में रख लिया। मुझे तो यह बातें नहीं सुहातीं! फिर तुम्हारी बहू है, तुम जानो, बिगाड़ो चाहे बनाओ।

मेरी तरफ उन्होंने गुस्से से देखकर पूछा—क्या है तुम्हारी जेब में बतलाओ तो।

मैंने कंगन निकालकर उनके सामने रख दिया। वे फिर डाँटकर बोले—यह उसके पास कैसे पहुँचा?

मैंने डरते-डरते अपराधिनी की तरह आदि से लेकर अंत तक कुएँ पर का सारा किस्सा उन्हें सुना दिया। उस पर अम्मा जी और पतिदेव दोनों ही की झिड़कियाँ मुझे सहनी पड़ीं। साथ ही ताक़ीद भी कर दी गयी कि मैं अब उनसे कभी न बोलूँ।

क्या पूछते हो? उनका नाम? रहने दो, मुझसे नाम न पूछो। उनका नाम जबान पर लाने का मुझे अधिकार ही क्या है? तुम्हें तो मेरी कहानी से मतलब है न? हाँ, तो मैं क्या कह रही थी?—मुझसे कहा गया कि मैं उनसे कभी न बोलूँ। यदि यह लोग फिर कभी मुझे उनसे बोलते देख लेंगे तो फिर कुशल नहीं। मैंने दीन भाव से कहा—मुझसे घर के सब काम करवा लो, पर कल से मैं पानी भरने न जाऊँगी।

इस पर पति देव बिगड़कर बोले—तुम पानी भरने न जाओगी तो मैं तुम्हें रानी बनाकर नहीं रख सकता। यहाँ तो जैसा कहूँगा वैसा करना पड़ेगा।

उसके बाद क्या बतलाऊँ कि क्या-क्या हुआ? ज्यों-ज्यों मुझे उनसे बोलने को रोका गया, त्यों-त्यों एक बार जी भर कर उनसे बात करने के लिए मेरी उत्कंठा प्रबल होती गयी। किन्तु मेरी यह साध कभी पूरी न हुई। वे जाते-जाते एक-दो बातें बोल दिया करते, जिसके उत्तर में केवल हँस दिया करती थी; लेकिन लोग यह भी न सह सके और तिल का ताड़ बन गया।

अब मुझ पर घर में अनेक प्रकार के अत्याचार होने लगे। हर दो-चार दिन बाद मुझ पर मार भी पड़ती;परन्तु मैं कर ही क्या सकती थी? मैं तो उनसे बोलती भी न थी। और उनका बोलना बन्द करना मेरी शक्ति से परे था। उन्होंने मुझसे कभी भी कोई ऐसी बात नहीं कही जो अनुचित कही जा सके। उन्हें तो शायद विधाता ने ही रोते हुओं को हँसा देने की कला सिखायी थी। वे ऐसी मीठी चुटकी लेते, कभी कोई हँसी की बात भी करते तो इतनी सभ्यता से, इतनी नपी-तुली, कि मैं चाहे जितनी दुखी होऊँ, चाहे जितने रंज में होऊँ पर हँसी आ ही जाती थी।

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