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बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135
आईएसबीएन :9781613010433

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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

अचानक कुन्तला को अपने कमरे में देखकर अखिलेश्वर को विस्मय और आनन्द दोनों ही हुआ। अपनी खाट के पास ही कुन्तला के बैठने के लिए कुरसी देकर वे स्वयं उठ कर खाट पर बैठ गये, बोले—कुन्तला! तुम कैसे आ गयीं? इस बीमारी में तो मैंने तुम्हारी बहुत याद की।

इसी समय राधेश्याम ने कमरे में प्रवेश किया। कुन्तला कुछ भी न बोल पायी। राधेश्याम को देखते ही अखिलेश्वर ने कहा—‘‘आओ भाई, राधेश्याम! आज कुन्तला आयी तो तुम भी आये, नहीं तो आज आठ दिन से बीमार पड़ा हूँ, रोज ही तुम्हारी याद करता था पर तुम लोग कभी न आये। फिर घड़ी की ओर देखकर बोले

‘‘आज तीन ही बजे कचहरी से कैसे लौट आये?’’

राधेश्याम ने रुखाई से उत्तर दिया—‘‘कोई काम नहीं था, इसलिए चला आया!’’ फिर पत्नी की ओर मुड़कर बोले—चलो, चलती हो? मैं तो जाता हूँ।

अखिलेश्वर ने बहुत रोकना चाहा, पर वे न रुके, चले ही गये, उनके पीछे कुन्तला भी चली। जाते-जाते उसने अखिलेश्वर पर एक ऐसी मार्मिक दृष्टि डाली, जिसमें न जाने कितनी करुणा, कितनी विवशता, कितनी कातरता और कितनी दीनता थी। कुन्तला चली गयी। किन्तु उसकी करुण-दृष्टि से अखिलेश्वर की आँखें खुल गयीं। राधेश्याम के आन्तरिक भावों को वे अब समझ सके।

घर पहुँच कर कुन्तला कुछ न बोली। वह चौके में चली गयी। कुछ ही क्षण बाद उसने लौट कर देखा कि उसके लेख, कविताएँ, कापियाँ, पेन्सिलें और अखिलेश्वर द्वारा उपहार में दी हुई फाउन्टेन सब समेट कर किसी ने आग लगा दी है। उसी अग्नि में अखिलेश्वर का वह प्यारा चित्र जो कुछ ही क्षण पहिले ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ा रहा था, धू-धू करके जल रहा है। और ऊपर उठती हुई लपटें मानों कह रही हैं—कुन्तला, यह तुम्हारे साहित्यिक जीवन की चिता है।

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