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बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135
आईएसबीएन :9781613010433

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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

उनका विश्वास था कि कुन्तला लेखों से कहीं अच्छी कविताएँ लिख सकेगी। किन्तु राधेश्याम को कुन्तला के पास अखिलेश्वर का बैठना अखरने लगा था। कभी-कभी सोचते, शायद कुन्तला के सुन्दर रूप पर ही रीझ कर अखिलेश्वर उसके साथ इतना समय व्यतीत करते हैं। किन्तु वे प्रकट में कुछ न कह सकते थे क्योंकि उन्होंने स्वयं ही तो उनका आपस में परिचय कराया था। कुन्तला राधेश्याम के मन की बात कुछ समझती थी इसलिए वह बहुत सतर्क रहती। किन्तु फिर भी यदि कभी भूल से उसके मुँह से अखिलेश्वर का नाम निकल जाता तो राधेश्याम के हृदय में ईर्ष्या की अग्नि भभक उठती। अब अखिलेश्वर के लिए राधेश्याम के हृदय में मित्र भाव की अपेक्षा ईर्ष्या का भाव ही अधिक था।

इन्हीं दिनों कुन्तला ने दो-चार तुकबंदियाँ भी कीं जिनमें कल्पना की बहुत ऊँची उड़ान और भावों का बहुत सुन्दर समावेश था किन्तु शब्दों का संघटन उतना अच्छा नहीं था। अपने हाथ के लगाये हुए पौधों में फूल आते देखकर जिस प्रकार किसी चतुर माली को प्रसन्नता होती है, उसी प्रकार कुन्तला की कविताएँ देखकर अखिलेश्वर खुश हुए। उन्होंने कविताएँ कई बार पढ़ीं और राधेश्याम को भी पढ़कर सुनायीं। कुन्तला की बुद्धि की बड़ी प्रशंसा की। किन्तु राधेश्याम खुश न हुए। उन्हें ऐसा मालूम हुआ कि जैसे कुन्तला ने अखिलेश्वर के विरह में ही विकल होकर ये कविताएँ लिखी हैं।

अखिलेश्वर निष्कपट और निःस्वार्थ भाव से ही कुन्तला का शिक्षण कर रहे थे। उन्हें कुन्तला से कोई विशेष प्रयोजन न था। कुन्तला के इस शिक्षण से उन्हें इतना आत्म-सन्तोष था कि वे साहित्य की एक सेविका तैयार कर रहे हैं जिसके द्वारा कभी न कभी साहित्य की कुछ सेवा अवश्य होगी। राधेश्याम के हृदय मं  इस प्रकार उनके प्रति ईर्ष्या के भाव प्रज्वलित हो चुके हैं, इसका उन्हें ध्यान भी न था।

अखिलेश्वर कई दिनों तक लगातार बीमार रहने के कारण घर के बाहर न निकल सके। खाट पर अकेले पड़े-पड़े धन्नियाँ गिनते हुए उन्हें अनेक बार कुन्तला की याद आयी। कई बार उन्होंने सोचा कि उसे बुलवा भेजें; फिर भी जाने क्या आगा-पीछा सोचकर वे कुन्तला को न बुला सके। इधर कई दिनों से अखिलेश्वर का कुछ भी समाचार न पाकर कुन्तला भी उनके लिए उत्सुक थी। वह बार-बार सोचती, एकाएक इस प्रकार आना क्यों बन्द कर दिया? क्या बात हो गयी? किन्तु वह अखिलेश्वर के विषय में राधेश्याम से कुछ पूछते हुए डरती थी। इसी बीच में एक दिन कुन्तला की माँ ने कुन्तला को बुलवा भेजा। राधेश्याम कुन्तला से यह कह कर कि जब ताँगा आवे तुम चली जाना कचहरी चले गये। कुन्तला माँ के घर जाकर जब वहाँ से तीन बजे लौट रही थी तो उसे रास्ते में हाथ में दवा की शीशी लिये हुए अखिलेश्वर का नौकर मिला। नौकर से मालूम करके कि अखिलेश्वर बीमार हैं, कई दिनों तक तेज बुखार रहा है, अब भी कई दिन घर से बाहर न निकल सकेंगे, कुन्तला अपने को न रोक सकी। क्षण भर के लिए अखिलेश्वर से मिलने के लिए उसका हृदय व्याकुल हो उठा। अखिलेश्वर के मकान के सामने पहुँचते ही ताँगा रुकवाकर वह अन्दर चली गयी। साथ में उसकी छोटी बहिन भी थी।

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