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बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135
आईएसबीएन :9781613010433

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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

जगमोहन उत्साह भरे शब्दों में बोले—अरे छोड़ो भी! ऐसी प्रतिज्ञा तो पत्नी के देहान्त के बाद सभी कर लेते हैं। उसके माने यह थोड़े है कि फिर कोई विवाह करता ही नहीं। अरे भाई! जन्म और मृत्यु जीवन में लगा ही रहता है। संसार में जो पैदा होता है वह मरेगा, जो मरा है फिर आयेगा। रंज किसे नहीं होता? किन्तु उस रंज के पीछे बैरागी थोड़े बन जाना पड़ता है। और फिर अभी तुम्हारी उमर ही क्या है? यही न पैंतीस-छत्तीस साल की, बस? जीवन भर तपस्या करने की बात है। बिना स्त्री के घर जंगल से भी बुरा रहता है। ब्रजेश की माँ चार ही छै दिनों के लिए मायके चली जाती है तो घर जैसे काट खाने दौड़ता है।

राधेश्याम—यह कोई बात नहीं, जगमोहन! घर से तो मुझे कुछ मतलब ही नहीं है। जिस दिन से मनोरमा का देहान्त हुआ, घर मेरे लिए ही नहीं रह गया। बात इतनी है कि बच्चे की देख-भाल करने वाला अब कोई नहीं है। अम्मा थीं, तब तक तो कोई बात ही न थी। पर अब बच्चे की कुछ भी देखभाल नहीं होती। नौकरों पर बच्चे को छोड़ देना उचित नहीं, और मैं कितनी देखभाल कर सकता हूँ, तुम्हीं सोचो? परिणाम यह हुआ कि बच्चा दिनों दिन कमजोर होता जा रहा है।

राधेश्याम का विवाह कुन्तला के साथ हो गया। उनकी उजड़ी हुई गृहस्थी में फिर से बहार आ गयी। मनोरमा के बंद कमरे का ताला खोलकर उसके चित्रों पर हल्की रंगीन जाली का परदा डाल दिया गया। उस घर में फिर से नूपुर की मधुर ध्वनि सुनायी पड़ने लगी। चतुर गृहिणी का हाथ लगते ही घर फिर स्वर्ग हो गया। कुन्तला की कार्य-कुशलता और बुद्धि की कुशाग्रता पर राधेश्याम मुग्ध थे। कुन्तला के प्रेम के प्रकाश से उनका हृदय आलोकित हो उठा। अब वहाँ पर मनोरमा की धुँधली स्मृति के लिए भी स्थान न था, वे पूर्ण सुखी थे।

राधेश्याम जी ने दूसरा विवाह किया था संभवतः हरिहर की देखभाल के ही लिए। किन्तु इस समय कुन्तला को हरिहर से भी अधिक राधेश्याम की देख-भाल करनी पड़ती थी। उनकी देख-भाल से ही वह परेशान हो जाती, इतनी थक जाती कि उसे हरिहर की तरफ आँख उठाकर देखने का भी अवसर न मिलता।

कुन्तला के असाधारण रूप और यौवन ने तथा राधेश्याम जी की ढलती अवस्था ने उन्हें आवश्यकता से अधिक असावधान बना दिया था।

बुरा-भला कैसा भी काम हो, सब की एक सीमा होती है। राधेश्याम के इस अनाचार से कुन्तला को जो मानसिक वेदना होती, सो तो थी ही; किन्तु इसका प्रभाव उसके स्वास्थ्य पर भी पड़े बिना न रहा। कुन्दन की तरह उसका चमकता हुआ रंग पीला पड़ गया, आँखें निस्तेज हो गयीं। छै महीने की बीमार मालूम होती। वैसी ही वह स्वभाव से सुकुमार थी। अब चलने में उसके पैर काँपते, सदा हाथ-पैर में दर्द बना रहता, जी सदा ही असलाया रहता। खाट पर लेट जाती तो उठने की हिम्मत ही न पड़ती। कुन्तला की इस अवस्था से राधेश्याम अनभिज्ञ हों, सो बात न थी। उन्हें सब मालूम था। कभी-कभी ग्लानि और पश्चाताप उन्हें भले ही होता किन्तु लाचार थे।

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