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बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135
आईएसबीएन :9781613010433

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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

आहुति

जनाने अस्पताल के पर्दा-वार्ड में दो स्त्रियों को एक ही दिन बच्चे हुए। कमरा नं. ५ में बाबू राधेश्याम जी की स्त्री मनोरमा को दूसरी बार पुत्र हुआ था। उन्हें प्रसूति-ज्वर हो गया था। उनकी अवस्था चिन्ताजनक थी। वे मृत्यु की घड़ियाँ गिन रही थी। कमरा नं. ६ में कुन्तला की माँ के सातवाँ बच्चा, लड़की हुई थी। माँ-बेटी दोनों स्वस्थ और प्रसन्न थीं। घर में कोई बड़ा आदमी न होने के कारण माँ की देख-भाल कुन्तला ही करती थी। उसके पिता एक दफ्तर में नौकरी करते थे। उन्हें पत्नी की देख-भाल करने की फुरसत ही कहाँ थी?

पं. राधेश्याम जी एडवोकेट, अपनी माँ और कई नौकरों के रहते हुए भी पत्नी को छोड़कर कहीं न जाते थे। दस दिन के बाद कुन्तला की माँ पूर्ण स्वस्थ होकर बच्ची समेत अपने घर चली गयीं और उसी दिन राधेश्यामजी की स्त्री का देहान्त हो गया। अपने नवजात शिशु को लेकर वे भी घर आये। किन्तु पत्नी-विहीन घर उन्हें जंगल से भी अधिक सूना मालूम हो रहा था।

पत्नी के देहान्त के बाद राधेश्याम जी ने दृढ़ निश्चय कर लिया था कि वे दूसरा विवाह न करेंगे। मनोरमा पर उनका अत्यन्त अधिक प्रेम था। वह अपना चिह्न स्वरूप जो एक छोटा-सा बच्चा छोड़ गयी थी, वही राधेश्याम जी का जीवनाधार था। वे कहते थे कि इसी को देखकर और मनोरमा की मूर्ति की पूजा करते हुए ही अपने जीवन के शेष दिन बिता देंगे। जिस हृदय-मन्दिर में वे एक बार मनोरमा की पवित्र मूर्ति की स्थापना कर चुके थे, वहाँ पर किसी दूसरी प्रतिमा को स्थापित नहीं कर सकते। घर से उन्हें विरक्ति-सी हो गयी थी। भीतर वे बहुत कम आते। अधिकतर बाहर बैठक में ही रहा करते। घर में आते ही वहाँ की एक-एक वस्तु उन्हें मनोरमा की स्मृति दिलाती उनका हृदय विचलित हो जाता। जिस कमरे में मनोरमा रहा करती थी उसमें सदा ताला पड़ा रहता। उस कमरे में वे उस दिन से कभी न गये थे जिस दिन से मनोरमा वहाँ से निकली थी। जीवन से उन्हें वैराग्य-सा हो गया था। आने-जाने वालों को वे संसार की असारता और शरीर की नश्वरता पर लेकचर दिया करते। कचहरी जाते, वहाँ भी जी न लगता। जिन लोगों से पचास रुपया फीस लेनी होती उनका काम पचीस में ही कर देते। गरीबों के मुकदमों में वे बिना फ़ीस के ही खड़े हो जाते। सोचते, रुपये के पीछे हाय-हाय करके करना ही क्या है? किसी तरह जीवन को ढकेल ले जाना है। तात्पर्य यह कि जीवन में उन्हें कोई रुचि न रह गयी थी।

दूसरे विवाह की बात आते ही, उनकी गंभीर मुद्रा को देखकर किसी को अधिक कहने-सुनने का साहस ही न होता। अतएव सभी यह समझ चुके थे कि राधेश्याम जी अब दूसरा विवाह न करेंगे। उनकी माता ने भी उनसे अनेक बार दूसरे विवाह के लिए कहा; किन्तु वे टस से मस न हुए। अन्त में वे अपनी इस इच्छा को साथ लिये हुए इस लोक से बिदा हो गयीं।

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