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बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135
आईएसबीएन :9781613010433

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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

इसी समय शुद्धी और संगठन की चर्चा ने जोर पकड़ा। शताब्दियों से सोये हुए हिन्दुओं ने जाना की कि उनकी संख्या दिनोंदिन कम होती जा रही है और विधर्मियों की, विशेषकर मुसलमानों की संख्या बे-हिसाब बढ़ रही है। यदि यही क्रम चलता रहा तो सौ डेढ़ सौ वर्ष बाद हिन्दुस्तान में हिन्दुओं का नाम भले ही मिल जाये, किन्तु हिन्दू तो कहीं ढूँढ़ने से भी न मिलेंगे। सभी मुसलमान हो जायेंगे। इसलिए धर्मभ्रष्ट हिन्दू और दूसरे धर्मवालों को फिर से हिन्दू बनाने और हिन्दुओं के संगठन की सबको आवश्यकता मालूम होने लगी। आर्य समाज ने बहुत बड़ा आयोजन करके दस-पाँच शुद्धियाँ भी कर डालीं। हिन्दू समाज में बड़ी हलचल मच गयी। बहुत से खुश थे और बहुत से पुराने खयाल वाले इन बातों को अनर्गल समझते थे।

उधर मुसलमान भी उत्तेजित हो उठे, तंजीम और तबलीग़ की स्थापना कर दी गयी। किन्तु डाक्टर मिश्रा पर इसका प्रभाव कुछ भी न पड़ता। हिन्दू और मुसलमान दोनों ही समान रूप से उनके पास आते थे, और वे दोनों की चिकित्सा दत्तचित्त होकर करते। दोनों जाति के बच्चों को समान भाव से प्यार करते। उनकी आँखों में हिन्दुओं का शुद्धी-संगठन और मुसलमानों का तंज़ीम-तबलीग़ दोनों व्यर्थ के उत्पात थे।

एक दिन डाक्टर साहब अपने दरवाजे में बैठे थे कि एक घबराया हुआ व्यक्ति जो देखने से साधारण परिस्थिति का मुसलमान मालूम होता था, उन्हें बुलाने आया। डाक्टर साहब के पूछने पर उसने बतलाया कि उसकी स्त्री बहुत बीमार है। लगभग एक साल पहले उसे बच्चा हुआ था, उस समय वह अपने माँ-बाप के घर थी। देहात में उचित देखभाल न हो सकने के कारण वह बहुत बीमार हो गयी, तब रहमान उसे अपने घर लिवा लाया। लेकिन दिनोंदिन तबीयत खराब ही होती जाती है। डाक्टर साहब उसके साथ ताँगे में बैठकर बीमार को देखने के लिए चल दिये। एक तंग गली के मोड़ पर ताँगा रुक गया। यहीं जरा आगे कुलिया से निकलकर रहमान का घर था। मकान कच्चा था, सामने के दरवाजे पर एक टाट का परदा पड़ा था, जो दो-तीन जगह से फटा हुआ था। उस पर किसी ने पान की पीक मार दी थी जिससे मटियाला-सा लाल धब्बा बन गया था। सामने जरा सी छपरी थी और बीच में एक कोठरी थी। यही कोठरी रहमान के सोने उठने-बैठने की थी और यही रसोई घर भी थी। रहमान बीड़ी बनाया करता था। गीले दिनों में यही कोठरी बीड़ी बनाने का कारखाना भी बन जाती थी क्योंकि छपरी में बौछार के मारे बैठना मुश्किल हो जाया करता था। कोठरी में दूसरी तरफ एक दरवाजा और था जिससे दिख रहा था कि पीछे एक छोटी सी छपरी और है जिसके कोने में टट्टी थी और टट्टी से कुछ-कुछ दुर्गन्ध आ रही थी। रहमान पहले भीतर गया, डाक्टर साहब दरवाजे के बाहर ही खड़े थे। बाद में वे भी रहमान के बुलाने पर अंदर गये। उनके अन्दर जाते ही एक मुर्गी जैसे नवागंतुक के भय से कुड़कुड़ाती हुई, पंख फटफटाती हुई, डाक्टर साहब के पैरों के पास से बाहर निकल गयी। डाक्टर साहब को बैठने के लिए रहमान ने एक स्टूल रख दिया। उसकी स्त्री खाट पर लेटी थी।

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