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बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135
आईएसबीएन :9781613010433

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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

—आदमी खा सकते हैं, औरतें नहीं खातीं। हमारी दादी कहती हैं कि हमें एकादशी के दिन अन्न नहीं खाना चाहिए।

—तो तुम एकादशी रहती हो?

—क्यों नहीं? हमारी दादी कहती हैं कि हमें नेम-धरम से रहना चाहिए।

डाक्टर साहब ने दिन में बहुत से रोगी देखे, बहुत से बच्चों से प्यार किया और संभवतः दिन भर वह बालिका को भूले भी रहे। किन्तु रात को जब सोने के लिए लैम्प बुझाकर वे खाट पर लेटे तो बालिका की स्मृति उनके सामने आयी। वह लज्जा और संकोच भरी आँखें वह भोला किन्तु दृढ़-निश्चयी चेहरा, वह मिठाई न लेने की अस्वीकृति का चित्र उनकी आँखों के सामने खिंच गया।

बाद में डाक्टर साहब को मालूम हुआ कि वह एक दूर के मुहल्ले में रहती है। उसका पिता एक गरीब ब्राह्मण हैं, जो वहीं किसी मन्दिर में पुजारी का काम करता है। अभी दो वर्ष हुए जब बालिका का विवाह हुआ था और विवाह के छै महीने बाद ही वह विधवा भी हो गयी। विधवा होते ही पुरानी प्रथा के अनुसार उसके बाल काट दिये गये थे। यही कारण था कि उसका सिर मुँडा हुआ था। उस परिवार में दो विधवाएँ थीं। एक तो पुजारी की बूढ़ी माँ, दूसरी यह अभागिनी बालिका। एक का जीवन अंधकारपूर्ण भूतकाल था जिसमें कुछ सुख-स्मृतियाँ धुँधली तारिकाओं की तरह चमक रही थीं। दूसरी के जीवन में था अंधकारपूर्ण भविष्य। परन्तु सन्तोष इतना ही था कि वह बालिका अभी उससे अपरिचित थी। दोनों की दिनचर्या (साठ और दस वर्ष की अवस्थाओं की दिनचर्या) एक-सी संयमपूर्ण और कठोर थी। बेचारी बालिका न जानती थी अभी उसके जीवन में संयम और यौवन के साथ युद्ध छिड़ेगा।

इस घटना को हुए प्रायः दस वर्ष बीत गये। डाक्टर साहब उस शहर को अपनी प्रैक्टिस के लिए अपर्याप्त समझ कर एक दूसरे बड़े शहर में चले गये। यहाँ उनकी डाक्टरी और भी चमकी। वे गरीब-अमीर सभी के लिए सुलभ थे।

बड़ा शहर था। सभा-सोसाइटियों की भी खासी धूम रहती और हर सभा-सोसाइटी वाले चाहते कि डाक्टर मिश्रा सरीखे प्रभावशाली और मिलनसार व्यक्ति उनकी सभा के सदस्य हो जायें। किन्तु डाक्टर साहब को अपनी प्रैक्टिस से कम फुरसत मिलती थी। वे इन बातों से दूर रहा करते थे।

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