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बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135
आईएसबीएन :9781613010433

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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

—चल चल, बहुत बड़प्पन न बघार, नहीं तो सब बड़प्पन निकाल दूँगी।

भामा अब कुछ चिढ़ गयी थी, बोली—बड़प्पन कैसे निकालोगी माँ जी, क्या मारोगी?

माँ जी को और भी क्रोध आ गया और बोली—मारूँगी भी तो मुझे कौन रोक लेगा? मैं गंगा को मार सकती हूँ, तो क्या तुझे मारने में कोई मेरा हाथ पकड़ लेगा?

—मारो, देखूँ कैसे मारती हो? मुझे वह बहू न समझ लेना जो सास की मार चुपचाप सह लेती हैं।

—तो क्या तू भी मुझे मारेगी? बाप रे बाप! इसने तो घड़ी भर में मेरा पानी उतार दिया। मुझे मारने को कहती है। आने दे गंगा को, मैं कहती हूँ कि भाई तेरी स्त्री की मार सहकर अब मैं घर में न रह सकूँगी, मुझे अलग झोपड़ा डाल दे, मैं वहीं पड़ी रहूँगी। जिस घर में बहू सास को मारने के लिए खड़ी हो जाय वहाँ रहने का धरम नहीं।

यह कहते-कहते माँ जी ज़ोर-ज़ोर से रोने लगीं।

भामा ने देखा कि बात बहुत बिगड़ गयी, अतः वह बोली—तुम्हें मारने को तो नहीं कहा माँ जी! क्यों झूठमूठ कहती हो। हाँ, मैं मार तो चुपचाप किसी की न सहूँगी। अपने माँ-बाप की नहीं सही तो किसी और की क्या सहूँगी?

—चुपचाप न सहेगी तो मुझे भी मारेगी न? वही बात तो हुई। यह मखमल में लपेट-लपेट कर कहती है तो क्या मेरी समझ में नहीं आता!

माँ जी के ज़ोर-ज़ोर रोने के कारण आस-पास की कई स्त्रियाँ इकट्ठी हो गयीं। कई भामा की तरफ़ सहानुभूति रखनेवाली थीं कई माँ की तरफ़। पर इस समय माँ जी को फूट-फूटकर रोते देखकर सब ने भामा को ही बुरा-भला कहा। सब माँ जी को घेर कर बैठ गयीं। भामा अपराधिन की तरह घर के भीतर चली गयी। भामा ने सुना, माँ जी आसपास बैठी हुई स्त्रियों से कह रही थीं—आप तो दोना भर-भर मिठाई मँगा-मँगा कर खाती है और मैंने कभी अपने लिए पैसे-धेले की चीज़ के लिए भी कहा तो फौरन ही टका-सा जवाब दे देती है कहती है पैसा ही नहीं है। इसके नाम से पैसे आ जाते हैं मेरे नाम से कंगाली छा जाती है। किसी भी चीज़ के लिए तरस-तरस के माँग-माँग के जीभ घिस जाती है। कभी जी में आया तो ला दिया नहीं तो कुत्ते की तरह भूँका करो। इस घर में यह हाल है मेरा। आज भी दोने भर मिठाई मँगवाई है। मैंने ज़रा ही पूछा तो मारने के लिए खड़ी हो गयी। कहती है मेरे आदमी की कमाई है; किसी के बाप का खाती हूँ क्या? उसका आदमी है तो मेरा भी बेटा है, उसका बारह आने हक है तो मेरा चार आने तो होगा।

पड़ोस की एक दूसरी बुढ़िया बोली—राम राम! यही पढ़ी-लिखी होशियार हैं। तुमने भी नौ महीने पेट में रखा बहिन! तुम्हारा तो सोलह आने हक है। बहू को, बेटा माँ के लिए लौंडी बनाकर लाता है। यह तुम्हारे पैर दबाने और तुम्हारी सेवा करने के लिए है। हमारा नन्दन तो जब तक बहू मेरे पैर नहीं दबा लेती, उसे अपनी कोठरी के अन्दर ही नहीं आने देता।

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