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बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135
आईएसबीएन :9781613010433

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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

—अपना ही माल खोटा हो तो परखने वाले का क्या दोष, बहिन! बेटा ही सपूत होता तो बहू आज मुझे मारने दौड़ती?

गंगा प्रसाद गाँव की प्रायमरी पाठशाला के दूसरे मास्टर की जगह के लिए उम्मीदवार थे। साढ़े सत्रह रुपये माहवार की जगह के लिए बेचारे दिन भर दौड़-धूप करते, इससे मिल, उससे मिल, न जाने किसकी-किसकी खुशामद करनी पड़ती थी, फिर भी नौकरी पाने की उन्हें बहुत कम उम्मीद थी। इधर वे कई मास से बेकार बैठे थे। भामा के पास कुछ जेवर थे जो हर माह गिरवी रक्खे जाते थे और किसी प्रकार काट-कसर करके घर का खर्च चलता था। भामा पैसों को दाँत तले दबा कर खर्च करती। सास और पति को खिलाकर आधे पेट खाकर पानी से पेट भर कर उठ जाती। कभी दाल का पानी ही पी लिया करती, कभी साग उबाल कर ही पेट भर लिया करती। रुपये-पैसों की तंगी के कारण घर में प्रायः कलह मची रहती।

जब गंगाप्रसाद जी दिन भर दौड़-धूप के बाद थके-हारे घर लौटे तब शाम हो रही थी। आँगन में उनकी माँ उदास बैठी थीं। बेटे को देखा तो नीची आँख कर ली, कुछ बोली नहीं। गंगाप्रसाद अपनी माँ का बड़ा आदर करते थे। उनका बड़ा खयाल करते थे। जिस बात से उन्हें ज़रा भी कष्ट होता वह बात वे कभी न करते थे। माँ को उदास देखकर वे माँ के पास जाकर बैठ गये, प्यार से माँ के गले में बाँहें डाल दीं और पूछा—क्यों माँ आज उदास क्यों हो?क्या कुछ तबियत खराब है?

—नहीं, अच्छी है।

—कुछ तो हुआ है माँ, तू उदास है।

अब माँ जी से न रहा गया, फूट-फूट के रोने लगी। बोलीं—कुछ नहीं, मैं आदमी-औरत में लड़ाई नहीं लगवाना चाहती, बस इतना ही कहती हूँ कि अब मैं इस घर में न रह सकूँगी। मेरे लिए अलग झोपड़ा बनवा दे, वहीं पड़ी रहूँगी। जी में आवे तो खरच भी देना नहीं तो माँग के खा लूँगी।

—क्यों माँ! क्या कुछ झगड़ा हुआ है? सच-सच कहना!

—आज ही क्या? यह तो तीसों दिन की बात है! तेरी घरवाली ने मोहन से मिठाई मँगवाई। वह दोना भर मिठाई मेरे सामने लाया। मैं जरा पूछने गयी तो कहती है, हाँ मँगवाती हूँ, खाती हूँ। अपने आदमी की कमाई खाती हूँ, कुछ तुम्हारे बाप का तो नहीं खाती? जब मैंने कहा कि तेरा आदमी है तो मेरा भी बेटा है, उसकी कमाई में मेरा भी हक है तो कहती है कि तुम्हारा हक जब था। तब था अब तो सब मेरा है। ज़्यादा बोलोगी तो मार के घर से निकाल दूँगी। तो बाबा तेरी औरत है, तू ही उसकी मार सह। माँग माँग के पेट भले ही भर लूँ, पर बहू के हाथ की मार न खाऊँगी।

गंगाप्रसाद अब सह न सके, बोले—वह तुझे मारेगी माँ! मैं ही न उसके हाथ-पैर तोड़ कर डाल दूँगा। कहते हुए वे हाथ की लकड़ी उठाकर बड़े गुस्से से भीतर गये। भामा को डाँटकर पूछा—क्या मँगवाया था तुमने मोहन से?

गंगाप्रसाद के इस प्रश्न के उत्तर में ‘कदम्ब के फूल थे, भैया!’ कहते हुए जब मोहन ने घर में प्रवेश किया तब तक भामा ने दोना उठाकर गंगाप्रसाद के सामने रख दिया था। दोने में आठ-दस पीले-पीले गोल-गोल बेसन के लड्डुओं की तरह कदम्ब के फूलों को देखकर गंगाप्रसाद को हँसी आ गयी।

मोहन ने दोने में से एक फूल उठाकर कहा—कितना सुन्दर है यह फूल भौजी?

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