परिवर्तन >> बिखरे मोती बिखरे मोतीसुभद्रा कुमारी चौहान
|
5 पाठकों को प्रिय 6 पाठक हैं |
सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ
बाबू रमाकान्त जी का स्वभाव इसके बिलकुल विपरीत था। थे तो वे डबल एम.ए., एक कालेज के प्रोफेसर, साहित्य-सेवी और देशभक्त, उज्ज्वल चरित्र के, नेक और उदार सज्जन, पर फिर भी पति-पत्नी के स्वभाव में बहुत विभिन्नता थी। कोई चाहे सच्चे हृदय से भी उनकी भलाई करने आता तो भी उसमें उन्हें कुछ न कुछ बुराई जरूर दीख पड़ती। वे सोचते इसकी तह में अवश्य ही कुछ न कुछ भेद है। कुछ न कुछ स्वार्थ होगा। तभी तो यह भलमनसाहत दिखाने आया है। नहीं तो मेरे पास आकर इसे ऐसी बात करने की आवश्यकता ही क्या पड़ी थी?
पतितों को वे बड़ी घृणा की नजर से देखते, उनकी हँसी उड़ाते। गिरने वाले को एक धक्का देकर वे गिरा भले ही दें, किन्तु बाँह पकड़ कर उसे ऊपर उठा के वे अपना हाथ अपवित्र नहीं कर सकते थे। वे पतितों की छाया से भी दूर-दूर रहते थे। अपने निकट सम्बन्धियों की भलाई करने में यदि दूसरे की कुछ हानि भी हो जाय तो उन्हें इसमें अफसोस न होता था। वे सज्जन होते हुए भी सज्जनता के कायल न थे। कोई उनके साथ बुराई करता तो उसके साथ उससे दूनी बुराई करने में उन्हें संकोच न होता था।
पति-पत्नी दोनों को अलग खड़ा करके यदि ढूँढ़ा जाता तो अवगुण के नाम से उनमें तिल के बराबर भी धब्बा न मिलता। बाह्यजगत में उनकी तरह सफल जोड़ा, उनके सदृश्य सुखी जीवन कदाचित् बहुत कम देख पड़ता। दूसरों को उनके सौभाग्य पर ईर्ष्या होती थी। उनमें आपस में कभी किसी प्रकार का झगड़ा या अप्रिय व्यवहार न होता। फिर भी दोनों में पद-पद पर मतभेद होने के कारण उनका जीवन सुखी न रहने पाता था।
शाम-सुबह, निर्मला दोनों समय घर के काम-काज के बाद मील-मील तक घूमने के लिए चली जाती थी। इससे शुद्ध वायु के साथ-साथ कुछ समय का एकान्त मिलता जो उसे कोई नयी बात सोचने या लिखने के लिए सहायक होता। किन्तु निर्मला की सास को बहू की यह हवाखोरी न रुचती थी। उन्हें सन्देह होता कि यह घूमने के बहाने न जाने कहाँ-कहाँ जाती होगी, न जाने किससे-किससे मिलकर क्या-क्या बातें करती होगी। प्रायः वह देखा करती कि निर्मला किधर से जाती है और कहाँ से लौटती है? एक बार उन्होंने पूछा भी—तुम गयीं तो इधर से थीं, उस ओर से कैसे लौटीं?
निर्मला इसका क्या जवाब देती, हँसकर रह जाती। किन्तु निर्मला की सास बहू की चुप्पी का दूसरा ही अर्थ लगातीं। उन्हें निर्मला का आचरण पसन्द न था। उसके चरित्र पर उन्हें पद-पद पर सन्देह होता; किन्तु इन मामलों में जब वह स्वयं रमाकान्त को ही उदासीन पातीं तो उन्हें भी मन मसोस कर रह जाना पड़ता था। क्योंकि रमाकान्त के सामने भी निर्मला घूमने निकल जाती और घंटों बाद लौटती अन्य पुरुषों से उनके सामने भी स्वच्छन्दतापूर्वक बातचीत करती, परन्तु रमाकान्त इस पर उसे ज़रा भी न दबाते।
|