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बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135
आईएसबीएन :9781613010433

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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

हेतसिंह अब न सह सके, जेब से रिवाल्वर निकालकर लगातार तीन फायर किये किन्तु तीनों निशाने ठीक न पड़े। ठाकुर साहब जरा ही इधर-उधर हो जाने से साफ बच गये। हेतसिंह उसी समय पकड़ा गया। हत्या करने की चेष्टा के अपराध में उसे पाँच साल की सख्त सज़ा हो गयी। इसके कुछ ही दिन बाद मैनपुरी षड्यन्त्र केस पर से उसके ऊपर दूसरा मामला भी चलाया गया जिसमें उसे सात साल की सजा और हो गयी। ठाकुर साहब का बाल भी बाँका न हो सका।

यद्यपि ठाकुर साहब के घर उनके कोई भी रिश्तेदार न आते थे किन्तु फिर भी ठाकुर साहब कभी-कभी अपने रिश्तेदारों के यहाँ हो आया करते थे। ठाकुर साहब की बुआ की लड़की चम्पा का ब्याह था। एक मामूली छपा हुआ निमन्त्रण पत्र पाकर ही वे विवाह में जाने को तैयार हो गये। चम्पा ने जब सुना कि ठाकुर साहब आये हैं तो उसने उन्हें अन्दर बुलवा भेजा। चम्पा को हेतसिंह के जेल जाने से बड़ा कष्ट हो ही रहा था। वह इस विषय में ठाकुर साहब से कुछ पूछना चाहती थी।

चम्पा के निडर स्वभाव और उसकी स्पष्टवादिता से ठाकुर साहब अच्छी तरह परिचित थे। पहले तो वे चम्पा के सामने जाने में कुछ झिझके। फिर आखिर में उन्हें जाना ही पड़ा। न जाने क्यों वे चम्पा का लिहाज़ भी करते थे। साधारण कुशल प्रश्न के पश्चात् चम्पा ने उनसे हेतसिंह के विषय में पूछा। ठाकुर साहब ने अफ़सोस ज़ाहिर करते हुए कहा—क्या करें, भूल तो हो ही गयी।

‘‘दादा, अब आप इन आदतों को छोड़ दें तो अच्छा हो।’’

‘‘कुछ अनभिज्ञता प्रकट करते हुए ठाकुर साहब बोले—कौन सी आदतें बेटी?

चम्पा ने मार्मिक दृष्टि से उनकी ओर देखा और चुप रह गयी।

ठाकुर साहब कुछ झेंप से गये, बोले—बेटी! मैं कुछ नहीं करता, तुझे विश्वास न हो तो चलकर एक बार अपनी आँखों से देख ले। वैसे तो लोग न जाने कितनी झूठी खबरें उड़ाया करेंगे पर तुझे तो विश्वास न करना चाहिए।

चम्पा का विवाह हो गया। चम्पा ससुराल गयी और ठाकुर साहब आये अपने घर।

घर आने पर भी चम्पा की वह मार्मिक दृष्टि उनके हृदय पर रह-रहकर आघात करती रही। बहुत बार उन्होंने सोचा कि मैं इन आदतों को क्यों न छोड़ दूँ? जीवन में न जाने कितने पाप किये हैं अब उनका प्रायश्चित भी तो करना ही चाहिए। अब नरेन्द्र (उनका लड़का) भी समझदार हो गया है उसके सिर पर घर-द्वार छोड़ कर क्यों न कुछ दिन तक पवित्र काशी में जाकर गंगा किनारे भगवद्-भजन करूँ? आधी उम्र तो जा ही चुकी है। क्या जीवन भर यही करता रहूँगा। मेरे इन आचरणों का प्रभाव नरेन्द्र पर भी तो पड़ सकता है। किन्तु पानी के बुलबुले के समान यह विचार उनके दिमाग में क्षण भर के लिए आते और चले जाते। उनका कार्यक्रम ज्यों का त्यों जारी था।

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