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बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135
आईएसबीएन :9781613010433

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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

दुख में भी एक प्रकार का आकर्षण होता है जिसने क्षण भर में ही हम दोनों को एक कर दिया। भिखारिणी बहुत बूढ़ी थी, उसे आँख से भी कम दिख पड़ता था। भिक्षावृत्ति करने के लिए अब उसे किसी साथी के सहारे की जरूरत थी। मैं उसी के साथ रहने लगी।

कई बार मैंने आत्महत्या करनी चाही किन्तु उस समय ऐसा मालूम होता कि जैसे कोई हाथ पकड़ लेता हो। मैं आत्म-घात भी न कर सकी। लगातार एक साल तक भिखारिणी के साथ रहकर भी मुझे भीख माँगना न आया। आता भी तो कैसे? अतएव मैं बुढ़िया का हाथ पकड़कर उसे सहारा देती हुई चलती, और भीख वही माँगा करती। मैं जवान थी, सुन्दर थी, फटे-चीथड़े और मैले-कुचैले वेश में भी मैं अपना रूप न छिपा सकती और मेरा रूप ही हर जगह दुश्मन हो जाता। अपने सतीत्व की रक्षा के लिए मुझे बहुत सचेत रहना पड़ता था और इसीलिए मुझे जल्दी-जल्दी स्थान बदलना पड़ता था। मेरे बदन की साड़ी फटकर तार-तार हो गयी थी, बदन ढाँकने के लिए साबित कपड़ा न था। प्रयाग में माघी अमावस्या के दिन बड़ा भारी मेला लगता है। बुढ़िया ने कहा—वहाँ चलने पर हमें तीन-चार महीने भर के खाने को मिल जायगा और कपड़ों के लिए पैसे भी मिल जायँगे। मैं बूढ़ी के साथ पैदल ही प्रयाग के लिए चल पड़ी।

माँगते-खाते कई दिनों में हम लोग प्रयाग पहुँचे। यहाँ पूरे महीने भर मेला रहता है। दूर-दूर के बहुत से यात्री आते हैं। हम लोग रोज सड़क के किनारे एक कपड़ा बिछाकर बैठ जाते और दिन-भर भिक्षा माँगकर शाम को एक पेड़ के नीचे अलाव जलाकर सो जाते। एक दिन इसी प्रकार शाम को जब हम भिक्षावृत्ति के बाद लौट रहे थे तब एक बग्घी निकली जिसमें कुछ स्त्रियाँ थी बुढ़िया एक पैसे के लिए हाथ फैलाकर गाड़ी के पीछे-पीछे दौड़ी। कुछ देर बाद बग्घी के अन्दर से एक पैसा फेंका गया। शाम के धुँधलके प्रकाश में बुढ़िया जल्दी पैसा न देख सकी। वह पैसा देखने के लिए कुछ देर तक झुकी रही। उसी समय, एक मोटर पीछे से और एक सामने से आ गयी। बुढ़िया ने बचना चाहा, मोटरवाले ने भी बहुत बचाया, पर बुढ़िया मोटर की चपेट में आ ही गयी। उसे गहरी चोट लगी और उसे बचाने की चेष्टा में मुझे भी काफी चोट आयी। जिस मोटर की चपेट में हम लोगों को चोट लगी थी, उस मोटरवाले ने पीछे मुड़कर देखा भी नहीं, किन्तु दूसरी मोटरवाले रुक गये। उसमें से दो व्यक्ति उतरे। मेरे मुँह से सहसा एक चीख निकल गयी।

कई दिनों तक लगातार बुखार के बाद जिस दिन मुझे होश आया, मैंने अपने आपको एक जनाने अस्पताल में परदा वार्ड के कमरे में पाया, एक खाट पर मैं पड़ी थी, मेरे पास ही दूसरी खाट पर भिखारिणी भी मरणासन्न अवस्था में पड़ी थी। मैं खाट से उठकर बैठने लगी, मास्टर बाबू पास ही कुर्सी पर बैठे कुछ पढ़ रहे थे। मुझे उठते देखकर पास आकर बोले—अभी आप न उठें। बिना डाक्टर की अनुमति के आपको खाट पर से नहीं उठना है।

‘क्यों? मैं पथ की भिखारिणी, मुझे ये साफ-सुथरे कपड़े, ये नरम-नरम बिछौने क्यों चाहिए? कल से तो मुझे फिर वही गली-गली की ठोकर खानी पड़ेगी न?’

उनकी बड़ी-बड़ी आँखें सजल हो गयीं। वे बड़े ही करुण स्वर में बोले—मँझली रानी! क्या तुम मुझे क्षमा न करोगी? तुम्हारा अपराधी तो मैं ही हूँ न? मेरे ही कारण तो आज तुम राजरानी से पथ की भिखारिणी बन गयी हो।

दो-तीन दिन में मैं पूर्ण स्वस्थ हो गयी। परन्तु भिखारिणी की हालत न सुधर सकी और एक दिन उसने अपनी जीवन-लीला समाप्त कर दी। उसके अंतिम संस्कारों से निवृत्त होकर मास्टर बाबू के साथ उनके बँगले में रहने लगी। किन्तु मैं अभी तक नहीं जान सकी कि वे मेरे कौन हैं? वे मुझ पर माता की तरह ममता और पिता की तरह प्यार करते हैं, भाई की तरह सहायता और मित्र की तरह नेक सलाह देते हैं, पति की तरह रक्षा और पुत्र की तरह आदर करते हैं। कुछ न होते हुए भी वे सब कुछ हैं। और सब कुछ होते हुए भी वे मेरे कुछ नहीं हैं।

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