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बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135
आईएसबीएन :9781613010433

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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

पिताजी दो कदम पीछे हट गये और कड़क कर बोले—दूर हट चांडालिन! निर्दोष ही तू होती तो इतना यह बवंडर ही क्यों उठता? उन्हें क्या पागल कुत्ते ने काटा था जो बैठे-बिठाये अपनी बदनामी करवाते? जा, जहाँ जगह मिले, समा जा। मेरे घर में तेरे लिए जगह नहीं है। क्या करूँ, अंगरेजी राज न होता तो बोटी-बोटी काट कर फेंक देता।

इस हो-हल्ले में समाज के कई ऊँची नाकवाले अगुआ और कई पास-पड़ोस वाले भी जमा हो गये। सबने मेरे भ्रष्टाचरण की बात सुनी और घृणा से मुँह बिचकाया।

एक बोला—नहीं भाई, अब तो यह घर में रखने लायक नहीं। जब ससुराल वालों ने ही निकाल दिया तो क्या पंडित राजभजन अपने घर रखकर जात में अपना हुक्का-पानी बन्द करवायेंगे!

दूसरे ने पिताजी पर पानी चढ़ाया—अरे भाई! घर में रक्खें तो रखने दो, उनकी लड़की है। पर हम तो पंडित जी के दरवाजे पर पैर न देंगे।

मैं फिर एक बार भीतर जाने के लिए दरवाजे की तरफ झुकी; किन्तु पिता जी ने एक झटके के साथ मुझे दरवाजे से कई हाथ दूर फेंक दिया। कुल में दाग़ तो मैंने लगा ही दिया था, वे मुझे घर में रखकर क्या जात बाहर भी हो जाते? मैं दूर जा गिरी और गिर कर बेहोश हो गयी। मुझे जब होश आया तब मेरे घर का दरवाजा बन्द हो चुका था और मुहल्ले भर में सन्नाटा छाया था। केवल कभी-कभी एक-दो कुत्तों के भूकने का शब्द सुन पड़ता था। मैं उठी बहुत सोचने के बाद स्टेशन की तरफ चली। एक कुत्ता भूँक उठा, जैसे कह रहा हो कि अब इस मुहल्ले में तुम्हारे लिए जगह नहीं है। जब मैं स्टेशन पहुँची एक गाड़ी तैयार खड़ी थी। बिना कुछ सोचे-विचारे मैं गाड़ी के एक जनाने डिब्बे में बैठ गयी। गाड़ी कितनी देर तक चलती रही, कहाँ-कहाँ खड़ी हुई, कौन-कौन से स्टेशन बीच में आये, मुझे कुछ पता नहीं; किन्तु सबेरे जब ट्रेन कानपुर पहुँचकर रुक गयी और एक रेलवे कर्मचारी ने आकर मुझे उतरने को कहा तो मैं जैसे चौंक-सी पड़ी। मैंने देखा सारी ट्रेन यात्रियों से खाली हो गयी है, स्टेशन पर भी यात्री बहुत कम थे। ट्रेन पर से उतर कर मेरी समझ में ही न आता था कि कहाँ जाऊँ। कल इस समय तक जो एक महल की रानी थी, आज उसके खड़े होने के लिए भी स्थान न था। बहुत देर बाद मुझे एकाएक ख़याल आया कि सत्याग्रह-संग्राम तो छिड़ा ही हुआ है, क्यों न मैं भी चलकर स्वयं-सेविका बन जाऊँ और देश-सेवा में जीवन बिता दूँ। पूछती हुई मैं किसी प्रकार कांग्रेस-दफ्तर पहुँची। वहाँ पर दो-तीन व्यक्ति बैठे थे, उन्होंने मुझसे पूछा कि मेरे पास किसी कांग्रेस-कमेटी का प्रमाण-पत्र है? मैंने कहा ‘नहीं’। तो उन्होंने मुझे स्वयं-सेविका बनाने से इन्कार कर दिया। इसके बाद मैं इसी प्रकार कई संस्थाओं और सुधारकों के दरवाजे-दरवाजे भटकी किन्तु मुझे कहीं भी आश्रय न मिला। विवश होकर मैं भूखी-प्यासी चल पड़ी, किन्तु जाती कहाँ? थककर एक पेड़ के नीचे बैठ गयी। मैंने अपनी अवस्था पर विचार किया। मैं आज रानी के पथ की भिखारिणी हो चुकी थी, मेरे सामने अब भिक्षावृत्ति को छोड़कर दूसरा उपाय ही क्या था। इसी समय न जाने कहाँ से एक भिखारिन बुढ़िया भी उसी पेड़ के नीचे कई छोटी-छोटी पोटलियाँ लिये हुए आकर बैठ गयी। बड़े इत्मीनान के साथ अपने दिन भर के माँगे हुए आटे, दाल, चावल को अपने चीथड़े में अच्छी तरह बाँधकर बुढ़िया ने मेरी तरफ देखा। मैंने भी उसकी ओर देखा।

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