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बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135
आईएसबीएन :9781613010433

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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

बड़ी रानी बोलीं—मेरी बातों पर कोई विश्वास ही नहीं करता था, अब अपनी आँखों देखो। आँखें धोखा तो नहीं खा रही हैं?

आज तक मैंने मँझले राजा की विलासी मूर्ति देखी थी। आज मैंने उनका रुद्र रूप भी देखा। क्रोध से पैर पटकते हुए वे बोले—किरणकुमार, इस कमरे में तुम किसके हुक्म से आये?

मास्टर बाबू भी उसी स्वर में बोले—मुझे किसी कमरे में जाने का हुक्म नहीं है?

बड़े राजा—मास्टर बाबू, अब यहाँ से चले जाओ, इसी में तुम्हारी कुशल है।

वे—मुझे ऐसी कुशल नहीं चाहिये। मैं पापी नहीं हूँ जो कायर की तरह भाग जाऊँगा। जाने से पहिले मैं आप को बतला देना चाहता हूँ कि मैं और मँझली रानी दोनों ही पवित्र और निर्दोष हैं। यह हरकत ईर्ष्या और जलन के कारण की गयी है।

बड़ी रानी गरज उठीं—उलटा चोर कोतवाल को डाँटे। चोरी की चोरी उस पर से सीनाजोरी। मैं! मैं ईर्ष्या करूँगी तुमसे? तुम हो किस खेत की मूली? मैं तुम्हें समझती क्या हूँ? तुम हो एक अदना से नौकर और यह है कल की छोकरी, सो भी किसी रईस के घर की नहीं। ईर्ष्या तो उससे की जाती है जो अपनी बराबरी का हो।

फिर बड़े राजा की तरफ मुड़कर बोलीं—तुम इसे ठोकर मारके निकलवा क्यों नहीं देते? तुम्हारे सामने ही खड़ा-खड़ा जबान लड़ा रहा है, और तुम सुन रहे हो! पहिले ही कहा था कि नौकर-चाकर को ज़्यादा मुँह न लगाया करो।

महाराज बड़े गुस्से से बोले—किरणकुमार चले जाओ।

इसी समय न जाने कहाँ से छोटे राजा आ पड़े और मास्टर बाबू को जबरदस्ती पकड़ कर अपने साथ लिवा ले गये। वे चले गये तो मुझ पर क्या बीती होगी, कहने की आवश्यकता नहीं, समझ लेने की बात है। नतीजा सबका यह हुआ कि उसी दिन एक चिट्ठी के साथ सदा के लिये मैं बिदा कर दी गयी। एक इक्के पर बैठालकर चपरासी मुझे माँ के घर पहुँचाने गया। चिट्ठी मेरे पिताजी के नाम थी, जिसमें लिखा था कि—‘आपकी पुत्री भ्रष्टा है, इसने हमारे कुल में दाग लगा दिया है। इसके लिए अब हमारे घर में जगह नहीं है।’ बात की बात में सारे मुहल्ले भर में मेरे भ्रष्टाचरण की बात फैल गयी। यहाँ तक कि मेरे घर पहुँचने से पहिले ही यह बात घर तक पहुँच गयी थी।

जब मैं पिताजी के घर पहुँची, शाम हो चुकी थी। इस बीच माताजी का देहान्त हो चुका था। भाई भी तीनों, कालेज में थे। घर पर मुझे केवल पिताजी मिले। उन्होंने मुझे अन्दर न जाने दिया। बाहर दालान में ही बैठाला। चिट्ठी पढ़ने के बाद वे तड़प उठे, बोले—जब यह भ्रष्ट हो चुकी है तो इसे यहाँ क्यों लाये? रास्ते में कोई खाई-खन्दक न मिला जहाँ ढकेल देते? इसे मैं अपने घर रखूँगा? जाय, कहीं भी मरे। मुझे क्या करना है?

मैं पिताजी के पैरों पर लोट गयी। रोती-रोती बोली—पिता जी, मैं निर्दोष हूँ।

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