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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

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आशा सोचने लगी - 'लेकिन ऐसा क्यों हुआ है?' मैंने क्या किया? लेकिन असली आफत जहाँ थी, वहाँ उसकी नजर न पड़ी। महेंद्र विनोदिनी को प्यार कर सकता है, इसकी संभावना तक उसके मन में न आ सकी थी। दुनिया के अनुभव उसे कुछ थे नहीं। उसके सिवा विवाह के कुछ ही दिन बाद से महेंद्र को जैसा समझ लिया था, वह उसके सिवा भी कुछ हो सकता है, इसकी उसने कल्पना भी न की थी।

महेंद्र आज कुछ पहले ही कॉलेज गया। कॉलेज जाते वक्त आशा सदा खिड़की के पास आ खड़ी होती और महेंद्र गाड़ी में से एक बार झाँक लेता - यह उसका सदा का नियम था। इसी आदत के मुताबिक यंत्रवत वह खिड़की के सामने आ खड़ी हुई। अभ्यासवश महेंद्र ने भी एक बार निगाह उठा कर ताका। देखा, आशा खिड़की पर खड़ी है - देखते ही महेंद्र नजर झुका कर अपनी गोद में रखी किताबें देखने लगा। आँखों में वह नीरव भाषा कहाँ थी, कहाँ थी वह बोलती हुई मुस्कान!

गाड़ी निकल गई। आशा वहीं जमीन पर बैठ गई। यह दुनिया, यह गिरस्ती - सबका स्वाद फीका पड़ गया। अचानक आशा को लगा - 'हाँ, समझी। बिहारी बाबू काशी गए थे, यही सुन कर शायद वे नाराज हैं। इसके सिवा और तो कोई अप्रिय घटना इस बीच नहीं घटी। मगर इसमें मेरा क्या कसूर!'

सोचते-सोचते एक बार अचानक मानो उसके दिल की धड़कन बंद हो गई। उसे संदेह हुआ, शायद महेंद्र को यह शंका हो गई कि बिहारी के काशी जाने में उसकी भी साँठ-गाँठ थी। राम-राम! ऐसी शंका! शर्म की हद!

महेंद्र अचानक गाड़ी से झाँक कर आशा का जो मलिन करुण मुखड़ा देख गया, उसे वह दिन भर अपने मन से न मेट सका। कॉलेज के लेक्चरों, छात्रों की कतारों में वह खिड़की, आशा का वह सूखा-रूखा चेहरा, बिखरे बाल, मैली धोती और वह आकुल-व्याकुल दृष्टि बार-बार साफ लकीरों में खिंच-खिंच आने लगी।

कॉलेज का काम खत्म करके वह गोलदिग्घी के किनारे टहलने लगा। शाम हो गई। वह फिर भी तय न कर सका कि आशा से कैसा बर्ताव किया जाए - दयापूर्ण छल या कपटरहित निष्ठुरता, कौन-सा उचित है? विनोदिनी का वह त्याग करे, या न करे यह बात ही मन में न आई। दया और प्रेम - दोनों का दावा वह कैसे करे?

आखिर उसने यह कह कर अपने मन को समझाया कि आज भी आशा के प्रति उसका जो प्रेम है, वह बहुत ही कम स्त्रियों को नसीब होता है। वह स्नेह, वह प्रेम मिलता रहे, तो आशा संतुष्ट क्यों न रहेगी? विनोदिनी और आशा, दोनों को जगह देने की योग्यता महेंद्र के प्रशस्त हृदय में है। विनोदिनी से उसका संबंध जिस पवित्र प्रेम का है, उससे दांपत्य में किसी तरह की आँच न आएगी।

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