उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
सजी-सँवरी शरमाई आशा धीरे-धीरे कमरे में आई। देखा, महेंद्र बिस्तर पर सोया है। वह यह न सोच पाई कि किस तरह से आगे बढ़े। जुदाई के बाद जरा देर के लिए एक नई लज्जा होती है - जहाँ पर से जुदा होते हैं, दोनों, ठीक वहाँ पर मिलने से पहले एक-दूसरे को नए संभाषण की उम्मीद होती है। अपनी उस चिर-परिचिता सेज पर आशा आज बे-बुलाए कैसे जाए? दरवाजे के पास देर तक खड़ी रही। महेंद्र की कोई आहट न मिली। धीमे-धीमे पग-पग बढ़ी। अचानक किसी गहने की आवाज हो उठती तो मारे शर्म के मर-सी जाती। धड़कते हृदय से वह मच्छरदानी के पास जा खड़ी हुई। लगा, महेंद्र सो गया है। उसका सारा साज-शृंगार उसे सर्वांग के बंधन-सा लगा। उसकी यह इच्छा होने लगी कि बिजली की गति से भाग जाए और जा कर और कहीं सो रहे।
अपने जानते भरसक चुपचाप संकुचित हो कर आशा बिस्तर पर गई। फिर भी इतनी आवाज जरूर हुई कि महेंद्र अगर सचमुच ही सोया होता, तो जग पड़ता। लेकिन आज उसकी आँखें न खुलीं, क्योंकि दरअसल वह सो नहीं रहा था। वह पलँग के एक किनारे करवट लिए पड़ा था। लिहाजा आशा उसके पीछे लेट गई। पड़ी-पड़ी आशा आँसू बहा रही थी। उधर मुँह करके सोने के बावजूद महेंद्र को इसका साफ पता चल रहा था। अपनी बेरहमी से वह चक्की की तरह कलेजे को पीस कर दुखा रहा था। लेकिन वह क्या कहे, कैसे स्नेह जताए - यह उसकी समझ में ही नहीं आ रहा था।
लेकिन आशा ने खुद ही उसकी यह मुसीबत भगा दी। वह तड़के ही अपमानित साज-शृंगार लिए उठ कर चली गई। वह भी महेंद्र को अपना मुँह न दिखा सकी।
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