उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
कल उसका हाथ जहाँ से कट गया था, वहाँ से फिर रक्त बहने लगा।
अफसोस से महेंद्र ने कहा - 'गलती हो गई, मैं भूल गया था। लेकिन मैं आज वहाँ पर पट्टी बाँध कर ही रहूँगा।'
विनोदिनी बोली - 'नहीं-नहीं, कुछ नहीं हुआ। दवा मैं नहीं लगाती।'
महेंद्र बोलीं - 'क्यों?'
विनोदिनी ने कहा - 'तुम्हारी डॉक्टरी की मुझे जरूरत नहीं। जैसा है, वैसा ही रहे।'
महेंद्र तुरंत गंभीर हो गया। मन-ही-मन बोला - 'औरत का मन समझ पाना बहुत ही मुश्किल है।'
विनोदिनी उठ खड़ी हुई। रूठे महेंद्र ने रोकने की कोशिश न की। केवल पूछा - 'जा कहाँ रही हो?'
विनोदिनी बोली - 'काम है।'
कह कर वह धीरे से चली गई।
महेंद्र एक मिनट तो बैठा रहा, फिर उसे लौटाने के लिए तेजी से लपका। लेकिन सीढ़ी तक ही बढ़ कर लौट आया और छत पर जा कर टहलने लगा।
विनोदिनी प्रतिपल उसे खींचा भी करती, मगर पास नहीं फटकने देती। कोई उसे जीत नहीं सकता, महेंद्र को इस बात का नाज था। इस नाज को आज उसने तिलांजलि दे दी। लेकिन औरों को वह जीत सकता है क्या - उसका यह गर्व भी अब नहीं रहने का? आज उसने हार मान ली, पर हरा न सका। दिल की बाबत महेंद्र का सिर सदा ऊँचा रहा था, वह अपना सानी नहीं समझता था - लेकिन उसी बात में उसे अपना सिर मिट्टी में गाड़ना पड़ा। अपनी जो ऊँचाई उसने खो दी, उसके बदले कुछ पाया भी नहीं।
फागुन-चैत में बिहारी की जमींदारी से सरसों के फूल का शहद आता है और हर साल वह राजलक्ष्मी के लिए शहद भेजा करता था। इस बार भी भेज दिया।
शहद का मटका विनोदिनी खुद राजलक्ष्मी के पास ले गई। कहा - 'बुआ, बिहारी भाई साहब ने भिजवाया है।'
राजलक्ष्मी ने उसे भंडार में रख देने को कहा। बोली - 'बिहारी बाबू, तुम लोगों की खोज-खबर में कभी नहीं चूकते। बेचारे की माँ नहीं, तुम्हें ही माँ मानते हैं।'
राजलक्ष्मी बिहारी को महेंद्र की ऐसी एक छाया समझा करती थीं कि उसके बारे में विशेष कुछ जानती न थीं। वह उसका बिना दाम का, बिना जतन का और बिना चिंता का फरमाबरदार था।
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