उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
कह कर वह विनोदिनी की तरफ ताके बिना खड़ा हो गया।
विनोदिनी बोली - 'परेशान न हो, कपड़े मैं ला देती हूँ।'
जा कर वह महेंद्र के कॉलेज जाने के कपड़े ले आई।
महेंद्र जल्दी-जल्दी चला गया, लेकिन कॉलेज में मन न लगा। देर तक पढ़ने में जी लगाने की कोशिश की मगर बेकार। आखिर जल्दी ही घर लौट आया।
कमरे में दाखिल हुआ तो देखा, पेट के नीचे तकिया रखे जमीन पर बैठी विनोदिनी कोई किताब पढ़ रही है - घने काले बालों का ढेर उसकी पीठ पर बिखरा पड़ा है। महेंद्र के जूतों की आवाज शायद उसे सुनाई नहीं दी। पैर दबा कर महेंद्र उसके करीब जा खड़ा हुआ। पढ़ते-पढ़ते उसने विनोदिनी को एक दीर्घ-नि:श्वास छोड़ते हुए देखा।
महेंद्र ने कहा - 'अरी ओ करुणामयी, कल्पना की दुनिया के लिए हृदय की फिजूलखर्ची मत करो! पढ़ क्या रही हो?'
घबरा कर विनोदिनी उठ बैठी। किताब अपने आँचल में छिपा ली। महेंद्र ने झपट कर छीनने की कोशिश की। देर तक हाथापाई, छीना-झपटी के बाद महेंद्र ने विनोदिनी से किताब छीन ली। देखा बंकिम बाबू की लिखी 'विषवृक्ष' थी। जल्दी-जल्दी साँस लेती हुई गुस्से में मुँह फेर कर विनोदिनी चुप हो रही।
महेंद्र के कलेजे में बेहद उथल-पुथल मची थी। बड़ी कोशिश के बाद वह हँस कर बोला - 'जा, बेहद छका दिया। मैंने सोचा था, कुछ बड़ी ही गोपनीय चीज होगी और पहाड़ खोदने के बाद निकली क्या, चुहिया ही न! बंकिम बाबू का 'विषवृक्ष'?'
विनोदिनी बोली - 'मेरे पास भला क्या गोपनीय हो सकता है, सुनूँ तो जरा।'
महेंद्र फट से कह उठा - 'कहीं बिहारी की चिट्ठी आई होती!'
पल में विनोदिनी की निगाह से बिजली छिटक पड़ी। अब तक मानो कामदेव कमरे के कोने में खिलवाड़ कर रहा था - वह मानो दूसरी बार जलकर राख हो गया। जलती हुई एक लपट की तरह विनोदिनी लमहे भर में उठ खड़ी हुई। उसकी कलाई पकड़ कर महेंद्र ने कहा -'माफ करो, मैंने मजाक किया था।'
विनोदिनी ने तेजी से अपनी कलाई छुड़ा ली और कहा - 'मजाक आखिर किसका! उनसे मैत्री के योग्य होते, तो मैं मजाक सह लेती। तुम्हारा दिल बड़ा छोटा है - मैत्री करने की जुर्रत नहीं, फिर मजाक!'
विनोदिनी चलने लगी। महेंद्र ने दोनों हाथों से उसके पैर थाम लिए।
ठीक इसी समय सामने एक छाया दिखी। महेंद्र ने चौंक कर उसके पैर छोड़ दिए। देखा, बिहारी खड़ा था।
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