उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
महेंद्र - 'पाप मैंने किया है और प्रायश्चित तुम्हें करना पड़ेगा?'
आशा - 'मैं नहीं जानती - लेकिन कहीं-न-कहीं पाप मुझसे हुआ है, नहीं तो ऐसी बातें उठतीं ही नहीं। जिन बातों को मैं ख्वाब में भी नहीं सोच सकती, आखिर वे बातें क्यों सुननी पड़ रही हैं।'
महेंद्र - 'इसलिए कि मैं कितना बुरा हूँ, इसका तुम्हें पता नहीं।'
आशा ने परेशान हो कर कहा - 'फिर! ऐसा न कहो, मगर काशी अब मैं जरूर जाऊँगी।' महेंद्र ने हँस कर कहा - 'तो जाओ! लेकिन तुम्हारी नजरों की ओट में मैं अगर बिगड़ जाऊँ तो?'
आशा बोली - 'इतना डराने की जरूरत नहीं... मानो मैं इस विचार में ही घबरा रही हूँ।'
महेंद्र - 'लेकिन सोचना चाहिए। लापरवाही से अपने ऐसे स्वामी को अगर तुम बिगाड़ दो, तो दोष किसे दोगी?'
आशा - 'दोष कमसे-कम तुम्हें न दूँगी, बेफिक्र रहो!'
महेंद्र - 'ऐसे में अपना दोष मान लोगी?'
आशा - 'हजार बार मान लूँगी।'
महेंद्र - 'ठीक है। तो कल मैं तुम्हारे बड़े चाचा जी से मिल कर सब तय कर आऊँगा।' और महेंद्र ने कहा, 'रात बहुत हो गई।' करवट बदल कर वह सो गया।
जरा देर बाद फिर इधर पलट कर अचानक कह उठा - 'चुन्नी, रहने भी दो। न भी जाओगी तो क्या हो जाएगा?'
आशा बोली - 'फिर मनाही क्यों? अब अगर एक बार मैं जा न पाई, तो मेरे बदन से तुम्हारी वह झिड़की हमेशा लगी रहेगी। दो ही चार दिन के लिए सही, मुझे भेज दो!'
महेंद्र बोला - 'अच्छा।'
वह फिर करवट बदल कर सो गया।
काशी जाने से एक दिन पहले आशा ने विनोदिनी के गले से लिपट कर कहा - 'भई किरकिरी, मेरा बदन छू कर एक बात बताओ!'
विनोदिनी ने आशा का गाल दबा दिया। कहा - 'कौन-सी?'
आशा - 'पता नहीं आजकल तुम कैसी तो हो गई हो। मेरे पति के सामने तुम निकलना ही नहीं चाहतीं।'
विनोदिनी - 'क्यों नहीं चाहती, यह क्या तू नहीं जानतीं? उस दिन महेंद्र बाबू ने बिहारी बाबू से जो कुछ कहा, तूने अपने कानों नहीं सुना? जब ऐसी बातें होने लगीं, तो फिर कमरे में क्या निकलना!'
'ठीक नहीं है'- आशा यह समझ रही थी और ये बातें कैसी शर्मनाक हैं, फिलहाल उसने अपने मन से यह भी समझा है। तो भी बोली - 'बातें तो ऐसी जाने कितनी उठती हैं, उन्हें अगर बर्दाश्त नहीं कर सकती तो फिर प्यार क्या! तुम्हें यह सब भूलना पड़ेगा!'
विनोदिनी - 'ठीक है, भूल जाऊँगी।'
आशा - 'मैं कल काशी जा रही हूँ। तुम्हें इसका खयाल रखना होगा कि उन्हें कोई तकलीफ न हो। जैसे भागती-फिरती हो, ऐसा करने से न चलेगा।'
विनोदिनी चुप रही। उसकी हथेली दबा कर आशा ने कहा - 'मेरे सिर की कसम, वह वचन तो तुम्हें देना ही पड़ेगा।'
विनोदिनी बोली - 'अच्छा।'
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