उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
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पिकनिक के दिन जो वाकया गुजरा उसके बाद फिर महेंद्र में विनोदिनी को अपनाने की चाहत बढ़ने लगी। लेकिन दूसरे ही दिन राजलक्ष्मी को फ्लू हो गया। बीमारी कुछ खास न थी, फिर भी उन्हें तकलीफ और कमजोरी काफी थी। विनोदिनी रात-दिन उनकी सेवा में लगी रहती।
महेंद्र बोला - 'माँ के सेवा-जतन में यों दिन-रात एक करोगी, तो तुम्हीं बीमार पड़ जाओगी।'
बिहारी ने कहा - 'आप नाहक परेशान हैं, भैया! ये सेवा कर रही है, करने दो। दूसरा कोई ऐसी सेवा थोड़े ही करेगा।'
महेंद्र बार-बार मरीज के कमरे में आने-जाने लगा। एक आदमी काम कुछ नहीं करता, लेकिन हर घड़ी पीछे लगा फिरता है, यह बात विनोदिनी को अच्छी न लगी। तंग आ कर उसने दो-तीन बार कहा - 'महेंद्र बाबू, यहाँ बैठे रह कर आप क्या कर रहे हैं? जाइए, नाहक क्यों कॉलेज से गैर-हाजिर होते हैं?'
महेंद्र उसके पीछे लगा डोलता है, इसका विनोदिनी को नाज था। खुशी थी। लेकिन फिर भी ऐसा क्या, बीमार माँ के बिस्तर के पास भी क्षुब्ध बैठे रहना - उसका धीरज टूट जाता, घृणा होती। अपने ऊपर किसी काम की जिम्मेदारी रहने पर वह और किसी बात का खयाल नहीं करती। जब तक खिलाना-पिलाना, रोगी की सेवा, घर के काम-धंधे की जरूरत रहती - किसी ने उसे कभी ढीला-ढाला नहीं देखा और खुद भी काम-काज के समय निकम्मापन पसंद नहीं करती।
कभी-कभी जरा देर को, माँ का हाल पूछने के लिए बिहारी आ जाया करता। कमरे में कदम रखते ही वह समझ जाता कि काहे की जरूरत है, कहाँ कौन-सी चीज की कमी है, उसकी आँखें तुरंत ताड़ जातीं और लमहे भर में सब कुछ ठीक करके वह कमरे से निकल जाता। विनोदिनी समझ रही थी कि मेरी सेवा को बिहारी श्रद्धा की नजर से देखता है। लिहाजा बिहारी के आने से उसे जैसे विशेष पुरस्कार मिलता था।
महेंद्र नियम से कॉलेज जाने लगा। एक तो उसका मिजाज ही बड़ा कड़वा हो गया, उस पर यह कैसा परिवर्तन! समय पर खाना तैयार नहीं होता, साइस जाने कहाँ गायब रहता, मोजे का छेद धीरे-धीरे बड़ा होता जाता। ऐसी गड़बड़ में उसे पहले - जैसा आनंद नहीं आता। जब जिस चीज की जरूरत हो, उसी क्षण उसे पा जाने से आराम कैसा होता है, इस बारे में वह कई दिन पहले ही स्वाद चख चुका था। अब उसकी कमी से आशा की जहालत में मजा खत्म हो गया - 'चुन्नी, मैंने बाहर तुमसे कहा कि मेरे नहाने के पहले ही कुरते में बटन लगा रखना, अचकन, पतलून ठीक करके रखना - मगर यह कभी नहीं होता। नहा कर बटन लगाने और कपड़े ढूँढ़ने में ही मेरा घंटा भर निकल जाता है।
शर्मसार हो कर आशा कहती - 'मैंने बैरे से कह दिया था।'
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