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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

विनोदिनी - 'मगर हो सकता है, आपकी फिक्र से वह बेहाल हो रहे हों। चल कर उन्हें दिलासा ही दे आएँ।'

तालाब के किनारे बँधा हुआ विशाल बरगद था। उसी के चौंतरे पर बिहारी अपना पैक-बक्स खोल कर मिट्टी के तेल का चूल्हा जला कर पानी गरम कर रहा था। जैसे ही लोग पहुँचे, उसने सबको चौंतरे पर बिठा कर एक-एक प्याला गरम चाय और तश्तरी में दो-एक मिठाइयाँ दे कर उनकी खातिर की। विनोदिनी बार-बार कहने लगी - 'गनीमत है कि बिहारी बाबू सारा सरंजाम साथ ले आए हैं! वरना चाय न मिलती तो क्या हाल होता महेंद्र बाबू का।'

चाय मिली, तो महेंद्र जी उठा। फिर भी बोला - 'यह सब बिहारी की ज्यादती है। आए हैं हजरत पिकनिक को और यहाँ भी बदस्तूर सारा इंतजाम उठा लाए हैं। इससे मजा नहीं रहता!'

तपी दोपहरी की हवा पत्तों में मर्मराहट ला कर बहती रही, तालाब के बाँध पर जामुन की डालों पर कोयल रह-रह कर कूकती रही। विनोदिनी अपने बचपन के किस्से सुनाने लगी - माँ-बाप की बात, छुटपन की सखी-सहेलियों की चर्चा। अचानक उसके माथे पर का पल्ला खिसक पड़ा। विनोदिनी की आँखों में कौतुक का जो तीखा कटाक्ष देख पैनी निगाहों वाले बिहारी के मन में आज तक तरह-तरह की शंकाएँ उठती रही थीं, वह श्याम चमक जब एक शांत सजल रेखा से मंद पड़ गई, तो बिहारी ने मानो और ही नारी को देखा। लजीली सती की नाईं विनोदिनी एकांत भक्ति से पति की सेवा कर रही है, मंगलमयी माता के समान संतान को अपनी गोद में लिए हुए है - पहले यह छवि क्षण के लिए भी कभी बिहारी के मन में न आई - आज मानो जरा देर के लिए रंगमंच का परदा उठ गया और अंदर का एक मंगल दृश्य उसे दिखाई दिया। बिहारी ने सोचा, 'विनोदिनी बाहर से विलासिनी युवती तो है, पर उसके अंतर्मन में पूजा-निरत एक नारी तपस्या में लीन है।' एक लंबी साँस तोड़ कर बिहारी ने मन-ही-मन कहा - 'सही-सही अपने को मनुष्य आप भी नहीं जानता - अंतर्यामी ही जानते हैं - परिस्थितिवश जो रूप बाहर बन जाता है, दुनिया उसी को सच समझती है।' बिहारी ने बातों के सिलसिले को टूटने न दिया, प्रश्नों से उसे जगाए रहा।

आज सुबह ही जगने के जुल्म से थके हुए महेंद्र की नींद पाँच बजे खुली। आजिजी से बोला - 'अब चल देना चाहिए।'

विनोदिनी ने कहा - 'थोड़ी देर और रुकें तो?'

सामान सहेजने में अँधेरा हो आया। नौकरों ने इतने में खबर दी, किराए की गाड़ी न जाने कहाँ गायब है। ढूँढ़े न मिली। गाड़ी बगीचे के बाहर खड़ी थी। दो गोरे जबर्दस्ती उसे ले कर स्टेशन चल दिए।

दूसरी गाड़ी ठीक करने के लिए नौकर भेजा गया। कुढ़ा हुआ महेंद्र बार-बार मन में कहने लगा - 'आज का दिन मुफ्त में बर्बाद हो गया।' ऐसी नौबत आ गई कि अपनी अधीरता वह छिपा न सका।

अँजोरिया का चाँद धीरे-धीरे झुरमुटों की ओर से खुले आकाश में आया। सुनसान अकंप बगीचा छाँह-जोत से झिलमिला उठा। इस माया-मंडित धरती पर आज विनोदिनी ने अपने को न जाने किस रूप में अनुभव किया। उसने जब तरु-वीथिका में आशा को जकड़ लिया, तो उसमें प्रणय की बनावट जरा भी न थी। आशा ने देखा, विनोदिनी की आँखों से आँसू बह रहे हैं। आशा ने पीडि़त होकर पूछा - भई आँख की किरकिरी, तुम रो क्यों  रही हो?

विनोदिनी बोली - कुछ नहीं बहन, सब ठीक है। आज का दिन मुझे बड़ा भला लगा।

आशा ने पूछा- किस बात से इतना भला लगा?

विनोदिनी बोली- मुझे लगता है, मानो मैं मर गई हूँ, मानो परलोक में आई हूँ - यहाँ मानो मुझे मेरा सर्वस्वं मिल सकता है।

अचरज में पड़ी आशा यह सब-कुछ न समझ सकी। मौत की बात सुनकर दुखी होकर कहा - छि:, ऐसा नहीं कहते, बहन!

गाड़ी मिली। बिहारी फिर कोच-बक्स पर जा बैठा। विनोदिनी चुपचाप ही बाहर की तरफ देखती रही - चाँदनी में अवाक पेड़ों की पाँत दौड़ते हुए घने छाया-प्रवाह की तरह उसकी आँखों से हो कर गुजरने लगी। आशा गाड़ी के एक कोने में सो गई और महेंद्र सारी राह उदास बैठा रहा।

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