उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
विनोदिनी - 'ऐसा भी होता है भला! मैं तो आज हूँ, कल नहीं रहूँगी - मेरी वजह से आप क्यों रुखसत होंगे? इतना झमेला होगा, यह जानती होती तो मैं यहाँ न आती...।' कह कर विनोदिनी मुँह मलिन किए बिना आँसू छिपाने को तेजी से चली गई।
बिहारी के मन में आया - 'झूठे संदेह पर मैंने नाहक ही विनोदिनी के मन को चोट पहुँचाई है।'
उस दिन मानो मुश्किल में पड़ी राजलक्ष्मी महेंद्र के पास जा कर बोली - 'महेंद्र विपिन की बहू घर जाने के लिए उतावली हो गई है।'
महेंद्र ने पूछा - 'क्यों, यहाँ उन्हें कोई तकलीफ है?'
राजलक्ष्मी - 'तकलीफ नहीं, वह कहती है, मुझ-जैसी विधवा ज्यादा दिन दूसरे के घर रहेगी, तो लोग निंदा करेंगे।'
महेंद्र क्षुब्ध हो कर बोला - 'तो यह पराया घर है!'
बिहारी बैठा था। महेंद्र ने उसे खीझी निगाह से देखा।
बिहारी ने सोचा था, 'कल मैंने जो कुछ कहा, उसमें निंदा का आभास था - शायद उसी से विनोदिनी का जी दुखा।'
पति-पत्नी दोनों विनोदिनी से रूठे रहे।
ये बोलीं - 'हमें पराया समझती हो, बहन!'
वे बोले - 'इतने दिनों में हम पराए हो गए।'
विनोदिनी ने कहा - 'हमें क्या तुम आजीवन पकड़े रहोगी?'
महेंद्र बोला - 'ऐसी जुर्रत कहाँ!'
आशा बोली - 'फिर ऐसे क्यों हमारे जी को चुराया तुमने?'
उस दिन कुछ भी तय न हो सका। विनोदिनी बोली - 'नहीं बहन, बेकार है, दो दिनों के लिए ममता न बढ़ाना ही ठीक है।'
कह कर अकुलाई हुई आँखों से उसने एक बार महेंद्र को देखा।
दूसरे दिन बिहारी ने आ कर कहा - 'विनोद भाभी, यह जाने की जिद क्यों? कोई कुसूर किया है - उसी की सजा?'
मुँह फेर कर विनोदिनी बोली - 'कुसूर आप क्यों करने लगे, कुसूर है मेरी तकदीर का।'
बिहारी - 'आप अगर चली जाएँ, तो मुझे यही लगता रहेगा कि मुझी से नाराज हो कर चली गईं आप।'
करुण आँखों से विनती जाहिर करती हुई विनोदिनी ने बिहारी की ओर ताका। कहा - 'आप ही कहिए न, मेरा रहना उचित है?'
बिहारी मुश्किल में पड़ गया। रहना उचित है, यह बात वह कैसे कहे?
बोला - 'ठीक है, आपको जाना तो पड़ेगा ही, लेकिन दो-चार दिन रुक कर जाएँ, तो क्या हर्ज है?'
अपनी दोनों आँखें झुका कर विनोदिनी ने कहा - 'आप सब लोग रहने का आग्रह कर रहे हैं, आप लोगों की बात टाल कर जाना मेरे लिए मुश्किल है, मगर आप लोग गलती कर रहे हैं।'
कहते-कहते उसकी बड़ी-बड़ी पलकों से आँसू की बड़ी-बड़ी बूँदें तेजी से ढुलकने लगीं।
बिहारी इन मौन आँसुओं से व्याकुल हो कर बोल उठा - 'महज इन कुछ दिनों में ही आपने सबको मोह लिया है, इसी से आपको कोई छोड़ना नहीं चाहता। अन्यथा न सोचें विनोद भाभी, ऐसी लक्ष्मी को चाह कर विदा भी कौन करेगा?'
आशा घूँघट काढ़े एक कोने में बैठी थी। घूँघट सरका कर वह रह-रह कर आँखें पोंछने लगी।
आइंदा विनोदिनी ने जाने की बात न चलाई।
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