उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
इन अनहोनी घटनाओं से महेंद्र के कौतूहल की सीमा न रही, लेकिन आशा को इससे तकलीफ होने लगी। बे-तरतीबी के बहाव में सारी गृहस्थी को बहा कर हँसते हुए उसी के साथ बहते चलना उस बालिका को विभीषिका जैसा लगा।
एक दिन शाम को दोनों बरामदे में बैठे थे। सामने खुली छत। बारिश खुल जाने से कलकत्ता की दूर तक फैली इमारतों की चोटियाँ चाँदनी में नहा रही थीं। बगीचे से मौलसिरी के बहुत-से ओदे फूल ला कर आशा माथा झुकाए माला गूँथ रही थी। महेंद्र खींचातानी करके, रुकावट डाल कर, उल्टा-सीधा सुना कर नाहक ही झगड़ा करना चाह रहा था। बे-वजह इस तरह सताए जाने के कारण आशा उसे झिड़कना चाहती थी कि किसी बनावटी उपाय से उसका मुँह दबा कर महेंद्र उसकी कहन को अँकुराते ही कुचल रहा था।
किसी पड़ोसी के पिंजरे की कोयलिया कूक उठी। महेंद्र ने उसी दम अपने सिर पर झूलते हुए पिंजरे को देखा। अपनी कोयल पड़ोसी की कोयल की बोली चुपचाप कभी नहीं सह सकती- आज वह चुप क्यों है?
महेंद्र ने कहा - 'तुम्हारी आवाज से लजा गई है।'
उत्कंठित हो कर आशा ने कहा - 'आज इसे हो क्या गया।'
आशा ने निहोरा करके कहा - 'मजाक नहीं, देखो न, उसे क्या हुआ है?'
महेंद्र ने पिंजरे को उतारा। पिंजरे पर लिपटे हुए कपड़ों को हटाया। देखा, कोयल मरी पड़ी थी। अन्नपूर्णा के जाने के बाद खानसामा छुट्टी पर चला गया था। कोयल का किसी ने खयाल ही न किया था।
देखते-ही-देखते आशा का चेहरा फीका पड़ गया। उसकी अगुलियाँ चल न सकीं- फूल यों ही पड़े रह गए। चोट तो महेंद्र को भी लगी, लेकिन नाहक ही रस भंग होगा, इसलिए उसने इसे हँस कर टाल जाने की कोशिश की। बोला - 'अच्छा ही हुआ। मैं इधर डॉक्टरी को निकलता और उधर यह कमबख्त 'कू-कू' करके तुम्हें जलाया करती थी।'
कह कर अपने बाहु-पाश में लपेट कर उसने आशा को अपने पास खींच लेना चाहा। अपने को धीरे-धीरे उसके बंधन से छुड़ा कर आशा ने आँचल से मौलसिरी के सब फूल गिरा दिए। बोली - 'छि:-छि: अब देर क्यों? जल्दी जा कर माँ को ले आओ!'
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