उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
राजलक्ष्मी जल्दी से उनके नहाने-खाने का इंतजाम करने गईं। बिहारी को मालूम हुआ तो वह घोष की मठिया से दौड़ आया। अन्नपूर्णा को प्रणाम करके बोला - 'ऐसा भी होता है भला, हम सबको निर्दयी की तरह ठुकरा कर तुम चल दोगी?' आँसू जब्त करके अन्नपूर्णा ने कहा - 'मुझे अब फेरने की कोशिश मत करो, बिहारी, तुम लोग सुखी रहो, मेरे लिए कुछ रुका न रहेगा।'
बिहारी कुछ क्षण चुप रहा। फिर बोला - 'महेंद्र की किस्मत खोटी है, उसने तुम्हें रुखसत कर दिया।'
अन्नपूर्णा चौंक कर बोलीं - 'ऐसा मत कहो, मैं उस पर बिलकुल नाराज नहीं हूँ। मेरे गए बिना उनका भला न होगा।'
बहुत दूर ताकता हुआ बिहारी चुप बैठा रहा। अपने आँचल से सोने की दो बालियाँ निकाल कर अन्नपूर्णा बोलीं- 'बेटे, ये बालियाँ रख लो! बहू आए तो मेरा आशीर्वाद जता कर इन्हें पहना देना!'
बालियाँ मस्तक से लगा कर आँसू छिपाने के लिए बिहारी बगल के कमरे में चला गया।
जाते वक्त बोलीं- 'मेरे महेंद्र और मेरी आशा का ध्यान रखना, बिहारी!'
राजलक्ष्मी के हाथों उन्होंने एक कागज दिया। कहा - 'ससुर की जायदाद में मेरा जो हिस्सा है, वह मैंने इस वसीयत में महेंद्र को लिख दिया है। मुझे हर माह सिर्फ पन्द्रह रुपए भेज दिया करना!'
झुक कर उन्होंने राजलक्ष्मी के पैरों की धूल माथे लगाई और तीर्थ-यात्रा को निकल पड़ीं।
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