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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

गाँवों में अतिथि-सत्कार का जो आम तरीका है, उससे इसमें थोड़ा फर्क था। उसी का जिक्र करते हुए बिहारी जब तारीफ करता, तो राजलक्ष्मी कहतीं- 'और ऐसी लड़की को तुम लोगों ने कबूल नहीं किया!'

हँसते हुए बिहारी कहता- 'बेशक हमने अच्छा नहीं किया माँ, ठगा गया। मगर एक बात है, विवाह न करके ठगाना बेहतर है, ब्याह करके ठगाता तो मुसीबत थी!'

राजलक्ष्मी के जी में बार-बार यही आता रहा, 'यही तो मेरी पतोहू होने योग्य थी। क्यों न हुई भला!'

राजलक्ष्मी कलकत्ता लौटने का जिक्र करतीं कि विनोदिनी की आँखें छलछला उठतीं। कहतीं- 'आखिर तुम दो दिन के लिए क्यों आईं, बुआ? अब तुम्हें छोड़ कर मैं कैसे रहूँगी?'

भावावेश में राजलक्ष्मी कह उठतीं- 'तू मेरी बहू क्यों न हुई बेटी, मैं तुझे कलेजे से लगाए रखती।'

सुन कर शर्म से विनोदिनी किसी बहाने वहाँ से हट जाती। राजलक्ष्मी इस इंतजार में थीं कि कलकत्ता से विनीत अनुरोध का कोई पत्र आएगा। माँ से अलग महेंद्र आज तक इतने दिन कभी न रहा था। माँ के इस लंबे बिछोह ने निश्चय ही उसके सब्र का बाँध तोड़ दिया होगा। राजलक्ष्मी बेटे के गिड़गिड़ाहट-भरे पत्र का इंतजार कर रही थीं।

बिहारी के नाम महेंद्र का पत्र आया। लिखा था, 'लगता है माँ बहुत दिनों के बाद मैके गई हैं, शायद बड़े मजे में होंगी।'

राजलक्ष्मी ने सोचा, 'महेंद्र ने रूठ कर ऐसा लिखा है। बड़े मजे में होंगी। महेंद्र को छोड़ कर बदनसीब माँ भला सुख से कैसे रह सकती है?'

'अरे बिहारी, उसके बाद क्या लिखा है उसने, पढ़ कर सुना तो जरा!'

बिहारी बोला - 'और कुछ नहीं लिखा है, माँ!'

और उसने पत्र को मुट्ठी से दबोच कर एक कापी में रखा और कमरे में एक ओर धप्प से पटक दिया।

राजलक्ष्मी अब भला थिर रह सकती थीं! हो न हो, महेंद्र माँ पर इतना नाराज हुआ है कि बिहारी ने पढ़ कर सुनाया नहीं।

गौ के थन पर चोट करके बछड़ा जिस प्रकार दूध और वात्सल्य का संचार करता है, उसी प्रकार महेंद्र की नाराजगी ने आघात पहुँचा कर राजलक्ष्मी के घुटे वात्सल्य को उभार दिया। उन्होंने महेंद्र को माफ कर दिया। बोलीं- 'अहा, अपनी बहू को ले कर महेंद्र सुखी है, रहे- जैसे भी हो, वह सुख से रहे। जो माँ उसे छोड़ कर कभी एक पल नहीं रह सकती, वही उसे छोड़ कर चली आई है, इसलिए महेंद्र अपनी माँ से नाराज हो गया है।'

रह-रह कर उनकी आँखों में आँसू उमड़ने लगे।

उस दिन वह बार-बार बिहारी से जा कर कहती रहीं- 'बेटे, तुम जा कर नहा लो। यहाँ बड़ी बदपरहेजी हो रही है तुम्हारी।'

राजलक्ष्मी अड़ गईं- 'नहीं-नहीं, नहा डालो!'

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