उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
अब जी जो चाहता है, सबको मान लेने की हिम्मत नहीं पड़ती। अब तक तो गुजरा, जितना कुछ झेला, उन सबके आवर्तन और आंदोलन को शांत न कर लूँ तो जीवन की समाप्ति के लिए तैयार न हो सकूँगी। अगर सारे बीते दिन अनुकूल हों, तो संसार में केवल तुमसे ही मेरा जीवन पूर्ण हो सकता था। अब तुमसे मुझे वंचित होना ही पड़ेगा। सुख की कोशिश अब बेकार है... अब तो धीरे-धीरे टूट-फूट कर मरम्मत कर लेनी है।'
इतने में अन्नपूर्णा आईं। उनके आते ही विनोदिनी ने कहा, 'माँ, तुम्हें अपने चरणों में मुझे शरण देनी पड़ेगी। पापिन के नाते तुम मुझे मत ठुकराओ।'
अन्नपूर्णा बोली, 'चलो मेरे ही साथ चलो।'
अन्नपूर्णा और विनोदिनी जिस दिन काशी जाने लगीं, मौका ढूँढ़ कर बिहारी ने अकेले में विनोदिनी से भेंट की। कहा, 'भाभी, तुम्हारी कोई यादगार मैं अपने पास रखना चाहता हूँ।'
विनोदिनी बोली, 'अपने पास ऐसा क्या है, जिसे निशानी की तरह पास रखो।'
बिहारी ने शर्म और संकोच के साथ कहा, 'अंग्रेजों में ऐसी रिवाज है, अपनी प्रिय पात्रा की कोई लट याद के लिए रख लेते हैं - तुम अगर...'
विनोदिनी - 'छि: कैसी घिनौनी बात! मेरे बालों का तुम क्या करोगे? वह मुई नापाक चीज कुछ ऐसी नहीं कि तुम्हें दूँ। अभागिन मैं, तुम्हारे पास रह नहीं सकती - मैं ऐसा कुछ देना चाहती हूँ, जो मेरा हो कर तुम्हारे काम में आए।'
बिहारी ने कहा, 'लूँगा।'
इस पर विनोदिनी ने आँचल की गाँठ से खोल कर हजार-हजार के दो नोट बिहारी को दिए।
बिहारी गहरे आवेश के साथ विनोदिनी के चेहरे की ओर एकटक देखता रहा। जरा देर बाद बोला - 'और मैं क्या तुम्हें कुछ न दे पाऊँगा?'
विनोदिनी ने कहा - 'तुम्हारी निशानी मेरे पास है, वह मेरे अंग का भूषण है, उसे कभी कोई छीन नहीं सकता। मुझे और कुछ नहीं चाहिए।'
यह कह कर उसने अपने हाथ की चोट का वह दाग दिखाया।
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