उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
महेंद्र - 'अब तुम्हें मैं न जाने दूँगा, चाची। तुम्हारे चले जाने से ही मेरी यह दुर्गति हुई।'
अन्नपूर्णा - 'मैं रह कर तुझे जिस दुर्गति से बचाती, वह हो गई, अच्छा हुआ। अब तुमको मेरी कोई जरूरत न पड़ेगी।'
दरवाजे पर फिर पुकार मची - 'चाची पूजा करने बैठी हो, क्या?'
अन्नपूर्णा ने कहा - 'नहीं, तू आ!'
बिहारी अंदर आया। इतने तड़के महेंद्र को जगा देख कर वह बोला - 'जीवन में आज शायद पहली बार तुमने सूर्योदय देखा, भैया!'
महेंद्र ने कहा - 'हाँ भाई, मेरे जीवन में यह पहला सूर्योदय है। तुम्हें चाची से कोई राय करनी है शायद - मैं चलता हूँ।'
बिहारी ने हँस कर कहा - 'तुम्हें भी कैबिनेट का मिनिस्टर बना लिया गया समझो। तुमसे तो मैंने कभी कुछ छिपाया नहीं - ऐतराज न हो तो आज भी न छिपाऊँ।'
महेंद्र - 'मैं और ऐतराज! हाँ, दावा जरूर नहीं कर सकता। तुम अगर मुझसे कुछ न छिपाओ, तो मैं भी फिर से आप अपने ऊपर श्रद्धा करने का मौका पाऊँ।'
बहरहाल, बिहारी के लिए बे-हिचक सब-कुछ कहना मुश्किल था। बिहारी की जबान रुक-सी गई, मगर उसने जोर दे कर कहा - 'ऐसी बात आई थी कि मैं विनोदिनी से विवाह करूँगा - चाची से उसी के बारे में फैसला लेना था।'
महेंद्र सकुचा गया। अन्नपूर्णा चौंक कर बोलीं - 'यह कैसी बात है, बिहारी?'
महेंद्र ने बड़ा बल डाल कर अपने संकोच को हटाया। कहा - 'बिहारी, यह विवाह नहीं होगा।'
अन्नपूर्णा ने कहा - 'इस प्रस्ताव में क्या विनोदिनी का हाथ है?'
बिहारी ने कहा - 'बिलकुल नहीं।'
अन्नपूर्णा बोलीं- 'वह भला क्या राजी होगी इस पर?'
महेंद्र बोला - 'वह भला राजी क्यों न होगी, चाची! मैं जानता हूँ, वह हृदय से बिहारी की भक्ति करती है। ऐसे आश्रय को वह छोड़ सकती है भला!'
बिहारी ने कहा - 'विवाह का प्रस्ताव विनोदिनी से मैंने किया था, भैया। उसने शर्म से इनकार कर दिया है।'
सुन कर महेंद्र चुप रह गया।
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