उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
चाय का प्याला लिए आशा विनोदिनी के पास पहुँची। पूछा - 'उबल गया पानी? मैं दूध ले आई हूँ।'
विनोदिनी अचरज से आशा का मुँह ताकने लगी। बोलीं - 'बिहारी भाई साहब बरामदे में बैठे हैं। तुम उनको चाय भेज दो। इतने में बुआ का मुँह धुलाने का इंतजाम करती हूँ। अब जग जाएँ शायद।'
विनोदिनी चाय ले कर बिहारी के पास नहीं गई। उसके प्रेम को कबूल करने के नाते बिहारी ने जो अधिकार उसे दिया था, उसके मनमाने इस्तेमाल में उसे संकोच हुआ। अधिकार पाने की जो मर्यादा है, उसे बचाना हो तो अधिकार के प्रयोग को संयत होना चाहिए। जितना मिलता है, उतने के लिए छीना-झपटी करना कँगले को ठीक लगता है।
इतने में महेंद्र आ पहुँचा। आशा का दिल धक् कर उठा, तो भी अपने को जब्त करके उसने स्वाभाविक स्वर में महेंद्र से कहा - 'तुम इतनी जल्दी जग गए। रोशनी न आए इस वजह से मैंने खिड़कियाँ बंद कर दी थीं।'
विनोदिनी के सामने ही इस सहज भाव से आशा को बात करते देख कर महेंद्र के कलेजे पर मानो कोई पत्थर उतर गया। वह खुश हो कर बोला - 'देखने आ गया कि माँ कैसी है। वे सो रही हैं अभी तक?'
आशा ने कहा, 'हाँ, सो रही हैं। अभी वहाँ मत जाना! भाई साहब ने बताया - आज वे पहले से अच्छी हैं। बहुत दिनों के बाद कल रात-भर वे मजे में सोई हैं।'
महेंद्र निश्चिंत हुआ। पूछा - 'चाची कहाँ हैं?'
आशा ने चाची का कमरा दिखा दिया।
आशा की यह दृढ़ता और संयम देख कर विनोदिनी को भी हैरत हुई।
महेंद्र ने पुकारा - 'चाची!'
अन्नपूर्णा स्नान करके पूजा करने की सोच रही थी। फिर भी उन्होंने कहा - 'आ महेंद्र, आ!'
महेंद्र ने उन्हें प्रणाम किया। कहा - 'चाची, मैं पापी हूँ। तुम लोगों के सामने आते मुझे शर्म आती है।'
अन्नपूर्णा बोलीं - 'ऐसा नहीं कहते, बेटे! बच्चे तो गर्द में सन कर भी माँ की गोद में बैठते हैं।'
महेंद्र - 'मगर मेरी यह धूल कभी धुलने की नहीं, चाची!'
अन्नपूर्णा - 'दो-एक बार झाड़ देने से यह झड़ जाएगी। अच्छा ही हुआ, महेंद्र। तुझे अपने भले होने का अभिमान था। अपने पर तुझे बेहद विश्वास था। पाप की आंधी ने तेरे उस गर्व को तोड़ गिराया है, और कुछ नहीं बिगाड़ा।'
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