उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
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हिमालय की चोटी यमुना को जो बर्फगली अक्षय जल-धारा देती है, उस यमुना में युगों-युगों से कवियों ने जो कवित्व' का स्रोत ढाला है, वह भी अक्षय है। उसकी कल-कल में कितने ही अनोखे छन्दच गूँजते हैं और उसकी लहरों की लोल लीला में न जाने कितने युगों के पुलकाकुल भावों का आवेग उफन-उफन आता है।
साँझ को महेंद्र जब उस यमुना के तट पर जा बैठा, तो प्रेम के आवेश ने उसकी नजरों में, साँसों में, नस-नस में, हड्डियों के बीच गाड़े मोह रस का संचार कर दिया आसमान में डूबने सूरज की किरणों किरणों की सुनहरी वीणा वेदना की मूर्च्छना से झरती जोत के संगीत से झंकृत हो उठी!
बारिश जैसा हो रहा था। नदी अपने उद्दाम यौवन में। महेंद्र के पास निर्दिष्ट कुछ नहीं था। उसे वैष्णव कवियों का वर्षाभिसार याद आया। नायिका बाहर निकली है; यमुना के किनारे वह अकेली खड़ी है। उस पार कैसे जाए? अरे ओ, पार करो, पार कर दो।' महेंद्र की छाती के अंदर यही पुकार पहुँचने लगी - 'पार करो'।
नदी से उस पार बड़ी दूर पर वह अभिसारिका खड़ी थी - फिर भी महेंद्र उसे साफ देख पाया। उसका कोई काल नहीं, उम्र नहीं, वह चिरंतन गोपबाला है, मगर महेंद्र ने उसे फिर भी पहचान लिया - पहचाना कि वह विनोदिनी है। सारा विरह, सारी वेदना यौवन का सारा भार लिए वह उस युग के अभिसार के लिए चली थी और आज के युग के किनारे आ निकली है। आज के इस सूने यमुना-तट के ऊपर आकाश में वही स्वर सुनाई पड़ रहा है। 'अरे ओ, पार करो, पार कर दो!'
महेंद्र मतवाला हो गया। विनोदिनी उसे ठुकरा देगी, चाँदनी रात के इस स्वर्ग-खंड को वह लक्ष्मी बन कर पूरा न करेगी, वह सोच भी नहीं सका। वह तुरंत उठ कर विनोदिनी को ढूँढ़ने चल दिया।
सोने के कमरे में गया। कमरा फूलों की खुशबू से महमहा रहा था। खुली खिड़कियों से छन कर चाँदनी सफेद बिछौने पर आ पड़ी थी। बगीचे के फूलों से सजी वह बसंत की बिखरी लता-जैसी चाँदनी में बिस्तर पर लेटी हुई थी।
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