उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
इस उम्र में ऐसा कठोर संन्यास-व्रत! सोने के कमरे से एकबारगी मौसी के कमरे में निर्वासन! ऐसी कठोर प्रतिज्ञा करते हुए उसकी आँखों के कोनों में आँसू झलक पड़े, बेबस होठ काँप उठे और गला रुँध गया। महेंद्र बोला - 'बेहतर है, चाची के कमरे में ही चलो! मगर तब उन्हें हमारे कमरे में ऊपर आना पड़ेगा।'
ऐसा एक गंभीर प्रस्ताव मजाक बन गया, आशा इससे नाराज हुई। महेंद्र ने कहा - 'इससे तो अच्छा है कि तुम रात-दिन मुझे आँखों-आँखों में रखो और निगरानी करो! फिर देखो कि मेरी इम्तहान की पढ़ाई चलती है कि नहीं।'
बड़ी आसानी से आखिर यही बात तै हो गई। यहो निगाहों के पहरे वाला काम कैसा चलता था, विस्ता्र से बताने की जरूरत नहीं। इतना ही कह देना काफी होगा कि उस साल महेन्द्रन इम्त।हान में फेल हो गया और चारुपाठ के लम्बेद वर्णन के बावजूद पुरुभुज के बारे में आशा की अनिभिज्ञता दूर न हो सकी।
उनका यह अनूठा पठन-पाठन एकबारगी निर्विघ्नू चलता रहा हो, ऐसा नहीं। बीच-बीच में बिहारी आकर बड़ी गड़बड़ मचाता। 'महेन्द्र भैया' की पुकार मचाकर वह आसमान सिर पर उठा लेता। महेन्द्रप को उसके सोने के कमरे की माँद में खींचकर बाहर किये बिना उसे चैन न पड़ता। महेन्द्रे की वह बड़ी लिहाड़ी लेता कि वह अपनी पढ़ाई में ढिलाई कर रहा है। आशा से कहता, भाभी, निगल जाने से हजम नहीं होता, चबा-चबाकर खाना चाहिए। अभी तो सारा भोजन एक ही कौर में निगल रही हो, बाद में हाजमे की गोली ढूँढ़े नहीं मिलेगी, हाँ।
महेन्द्र कहता - चुन्नीग, इसकी सुनो ही मत। इसे हमारे सुख से रश्क् हो रहा है।
बिहारी कहता - सुख जब तुम्हाीरी मुट्ठी में है, तो इस तरह से भागो कि औरों को रश्क न हो।
महेन्द्र जवाब देता - औरों के रश्क् से सुख जो होता है! चुन्नी जरा-सी चूक से मैं तुम्हेंो इस गधे के हाथों सौंप रहा था।
बिहारीलाल आँखों में कहता - 'चुप!'
इन बातों से आशा बिहारी पर मन-ही-मन कुढ़ जाती। कभी बिहारी उसकी शादी की बात चली थी, इसी से वह बिहारी से खिंची-खिंची रहती- यह बिहारी समझता था और महेन्द्रइ इसी बात का मजाक किया करता।
राजलक्ष्मीक बिहारी से दुखड़ा रोया करतीं। बिहारी कहता, माँ, कीड़े जब घर बनाते हैं, तो उतना खतरा नहीं रहता, लेकिन जब उसे काटकर वे उड़ जाते हैं, तो उन्हेंन लौटाना मुश्किल है। किसे यह पता था कि वह तुम्हाहरे बन्धेन को इस तरह तोड़ फेंकेगा।
महेन्द्र के फेल होने की खबर से राजलक्ष्मी धधक उठीं, जैसे गर्मियों की आकस्मिक आग लहक उठती है। लेकिन उनकी जब जलन और चिनगी भेगनी पड़ी अन्नठपूर्णा को। उनका तो सोना-खाना हराम हो गया।
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