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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

विनोदिनी का महेंद्र मानो आशा के लिए पराया पुरुष हो। इतने में छत के लोहे-लक्कड़ से महेंद्र की अनमनी नजर सामने की दीवार की तरफ उतरी। उसकी नजर का अनुसरण करते हुए आशा ने देखा, दीवार पर महेंद्र की तस्वीर के पास ही आशा का एक फोटो लटक रहा है। उसके जी में आया, दामन से उसे ढँक दे। अभ्यासवश क्यों वह आज तक उसकी नजर में न आया, क्यों अब तक उसने उतार नहीं फेंका, यही सोच कर वह अपने को धिक्कारने लगी। उसे लगा, महेंद्र मन-ही-मन हँस रहा है। अंत में आजिज आए महेंद्र की नजर दीवार से नीचे उतर आई। अपनी मूर्खता मिटाने के लिए आशा आजकल साँझ को काम-काज और सास की सेवा से फुरसत पाते ही काफी रात तक लिखा-पढ़ी करती थी। उसके पढ़ने-लिखने की कापी-किताबें कमरे में एक तरफ रखी हुई थीं। महेंद्र ने उनमें से एक कापी उठा ली और देखने लगा। आशा की ख्वाहिश होने लगी कि चीख कर उसे छीन लाए। अपने कच्चे हरफ पर महेंद्र की व्यंग्य दृष्टि की कल्पना करके वह एक पल-भर भी और न खड़ी रह सकी। तेजी से नीचे उतर गई - आहट छिपाने की भी चेष्टा न रही।

महेंद्र का खाना तैयार था। राजलक्ष्मी सोच रही थी, 'महेंद्र बहू से हँसी-दिल्लगी कर रहा होगा,' लिहाजा भोजन ले जा कर बीच ही में रुकावट डालने को जी नहीं चाह रहा था। आशा को उतरते देख खाने की जगह पर थाली रख कर उन्होंने महेंद्र को खबर दी। महेंद्र खाने जाने को उठा ही था कि आशा दौड़ कर कमरे में गई और दीवार से अपनी तस्वीर उतार कर छत की दीवार के बाहर फेंक दी और अपनी कापी-किताबें उठा ले गई।

खा-पी कर महेंद्र कमरे में आ बैठा। राजलक्ष्मी ने लेकिन बहू को आस-पास कहीं नहीं पाया। अंत में रसोई में जा कर देखा, आशा उनके लिए दूध उबाल रही थी। कोई जरूरत न थी इसकी, क्योंकि जो नौकरानी रोज दूध उबाला करती थी, वह पास ही थी और आशा के इस निरर्थक उत्साह पर ऐतराज कर रही थी। पानी डाल कर जितना दूध वह रोज गायब करती थी, आज वह हाथ से जाता रहा, इससे वह अकुला रही थी।

राजलक्ष्मी बोलीं- 'अरे, यहाँ क्यों बहू, ऊपर जाओ!' आशा ने ऊपर जा कर सास के कमरे में पनाह ली। बहू के इस व्यवहार से राजलक्ष्मी नाराज हुईं। सोचा, 'उस मायाविनी के फंदे से निकल कर महेंद्र घड़ी-भर के लिए घर भी आया, तो नाराज हो कर, रूठ कर बहू फिर उसे घर से निकालने को तैयार! और विनोदिनी के फंदे में जो महेंद्र पड़ा वह ही तो आशा के ही चलते। मर्द तो गलत राह पर चलने के लिए पाँव बढ़ाए ही रहता है। औरत का कर्तव्य है, छल-बल कौशल से उसे सही रास्ते पर रखे।'

राजलक्ष्मी ने फटकार बताई - 'यह तुम्हारा क्या रवैया है, बहू! खुश-किस्मती से स्वामी कहीं घर आ गए तो मुँह लटकाए तुम इस-उस कोने में क्यों छिपी फिरती हो?'

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