उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
घर की दास-दासियों से भी वह महेंद्र को ढँके रखना चाहती।
इधर ज्योतिषी जी और उनकी बहन को देख कर महेंद्र मन-ही-मन बड़ा नाराज हुआ। उसकी माँ और स्त्री जंतर-मंतर से उसे वश में लाने के लिए इन अशिक्षित मूर्खों के साथ बेहयाई से साजिश कर रही हैं, यह महेंद्र को सहन नहीं हुआ। इस पर जब ज्योतिषीजी की बहन ने जरूरत से ज्यादा शहद-सने स्वर में पूछा - 'कुशल तो है, बेटे!' तो उससे वहाँ बैठा न गया। उनके कुशल-प्रश्न का उत्तर दिए बिना ही बोला - 'माँ, मैं जरा ऊपर चलता हूँ।'
माँ ने समझा, महेंद्र शायद एकांत में बहू से बात करना चाहता है। बेहद खुश हो कर खुद रसोई में गई। जा कर आशा से कहा - 'जाओ, जल्दी से ऊपर जाओ, महेंद्र को शायद कुछ काम है।'
आशा धड़कते हृदय और सकुचाते कदमों से ऊपर गई। सास के कहने से उसने यह समझा कि महेंद्र ने शायद उसे बुलाया है। लेकिन अचानक ही उससे कमरे में जाते न बना, वह पहले अँधेरे दरवाजे की आड़ से महेंद्र को देखने लगी।
महेंद्र बड़े ही सूने मन से फर्श के बिस्तर पर तकिए के सहारे लेटा-लेटा छत के शहतीर गिन रहा था। वही महेंद्र तो था। सारा कुछ वही मगर कितना परिवर्तन!
आशा अँधेरे में खड़ी-खड़ी जितना ही महेंद्र को देखने लगी, उतना ही उसके मन में होने लगा कि महेंद्र अभी-अभी उसी विनोदिनी के यहाँ से आया है, उसके अंगों में उसी विनोदिनी का स्पर्श है, आँखों में उसी की मूरत, कानों में उसी विनोदिनी की आवाज, मन में उसी विनोदिनी की वासना घुली-मिली है। आशा इस महेंद्र को अपनी पवित्र भक्ति कैसे दे, कैसे एक मन से कहे कि आओ, मेरे हृदय में विराजो।
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