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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

विनोदिनी - 'अपने लिए मैं तुम्हें सब-कुछ न छोड़ने दूँगी।'

महेंद्र कह उठा- 'अब वह तुम्हारे हाथ की बात नहीं - सारी दुनिया मेरी चारों तरफ से खिसक पड़ी है - बस, एक तुम हो - तुम विनोद...'

कहते-कहते विह्वल हो कर महेंद्र लौट पड़ा और विनोदिनी के पैरों को पकड़ कर उन्हें बार-बार चूमने लगा।

पाँव छुड़ा कर विनोदिनी उठ खड़ी हुई। बोली - 'याद नहीं, तुमने क्या प्रतिज्ञा की थी?'

सारी शक्ति लगा कर महेंद्र ने अपने को जब्त किया। कहा - 'याद है मैंने शपथ ली थी कि तुम जो चाहोगी वही होगा, मैं कभी कोई एतराज न करूँगा। उस शपथ को मैं रखूँगा। बताओ, मुझे क्या करना है?'

विनोदिनी - 'तुम अपने घर पर रहोगे।'

महेंद्र - 'एक मैं ही क्या तुम्हारी अनिच्छा की वस्तु हूँ, विनोद! अगर यही बात है तो तुम मुझे खींच क्यों लाई? जो तुम्हारे भोग की चीज न थी, उसके शिकार की क्या जरूरत पड़ी थी? सच-सच बताओ, मैंने स्वेच्छा से तुम्हें पकड़ लि‍या या तुमने जान कर मुझे पकड़ा? मुझसे तुम इस तरह खिलवाड़ करोगी और यह भी मुझे सहना पड़ेगा? फिर भी अपनी शपथ मैं रखूँगा, जिस घर को मैं लात मार कर आया, वहीं जा कर रहूँगा।'

विनोदिनी जमीन पर बैठी फिर से सिलाई में जुट गई।

कुछ देर तक उसके मुँह की ओर एकटक देख कर महेंद्र बोल उठा - 'बेरहम! निर्दयी हो तुम, विनोद! मैं बड़ा ही अभागा हूँ कि मैंने तुम्हें प्यार किया।'

विनोदिनी से सिलाई में कोई गलती हो गई। रोशनी के पास बड़ी मेहनत से वह धागे को खोजने लगी। महेंद्र के जी में आ रहा था कि विनोदिनी के संगदिल को अपनी मुट्ठी में ले कर पीस डाले। उसकी इस मौन निर्दयता और अडिग उपेक्षा को धक्का दे कर बाहु-बल से शिकस्त देने को जी चाह रहा था।

महेंद्र बाहर निकला और फिर-फिर लौट आया। बोला - 'मैं न रहूँगा तो यह तुम्हारी हिफाजत कौन करेगा?'

विनोदिनी - 'उसकी तो तुम फिक्र ही न करो। बुआ ने उस छमिया नौकरानी को जवाब दे दिया है। आज से वह यहीं रहेगी। अंदर से घर बंद करके हम दोनों मजे में यहाँ रह लेंगी।'

भीतर-भीतर उस पर जितना ही गुस्सा आने लगा, विनोदिनी के लिए उसका उतना ही जबरदस्त खिंचाव होने लगा। उस टस से मस न होने वाली मूरत को वज्र की ताकत से छाती से चिपका कर चूर-चूर कर देने की इच्छा होने लगी। अपनी उस प्रबल इच्छा के हाथों से छुटकारा पाने के लिए महेंद्र दौड़ कर कमरे से बाहर चला गया।

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