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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

सीढ़ी पर कुछ देर खड़े रह कर महेंद्र ने अपने को सँभाल लिया - विनोदिनी के प्रति जो प्रेम था, उसे उभारा। अपने-आपको समझाया कि आज तक सारी दुनिया को भूल कर उसने जो चाहा था, वह मिल गया - दोनों के बीच अब अड़चन की कोई दीवार नहीं - आज तो महेंद्र की खुशी का दिन है। कोई अड़चन नहीं थी - लेकिन सबसे बड़ी अड़चन यही थी- आज वह आप ही अपनी बाधा था।

रास्ते में महेंद्र को देख कर विनोदिनी ध्यान के आसन से उठी। कमरे में रोशनी जलाई। सिलाई का काम ले कर नजर झुकाए बैठ गई। सिलाई उसकी एक ओट थी। उसकी आड़ में मानो उसका एक आश्रय था।

कमरे में आ कर महेंद्र बोला - 'यहाँ, जरूर तुम्हें बड़ी असुविधा हो रही है, विनोद!'

अपनी सिलाई में लगी-लगी बोली - 'बिलकुल नहीं।'

महेंद्र बोला - 'दो ही तीन दिनों में मैं सारा सामान ले आऊँगा। कुछ दिन तुम्हें थोड़ी तकलीफ होगी।'

विनोदिनी बोली - 'नहीं, वह न होगा - तुम अब एक भी सामान और न लाओ - जो है, वही मेरी जरूरत से कहीं ज्यादा है।'

महेंद्र ने कहा - 'मैं अभागा भी क्या उससे कहीं ज्यादा में हूँ?'

विनोदिनी - 'अपने को उतना ज्यादा लगाना ठीक नहीं, कुछ विनय रहनी चाहिए।'

दीये की जोत में सूने कमरे में सिर झुकाए विनोदिनी की उस आत्म-तल्लीन मूर्ति को देख कर महेंद्र के मन में फिर उसी मोह का संचार हुआ।

घर में होता तो दौड़ कर विनोदिनी के पैरों में गिर पड़ता - मगर यह घर तो था नहीं, इसलिए वैसा न कर सका। आज विनोदिनी बड़ी बेचारी थी, बिलकुल महेंद्र की मुट्ठी में- आज अपने को संयत न रखे तो बड़ी कायरता होगी।

विनोदिनी ने कहा - 'अपने किताब-कपड़े यहाँ क्यों ले आए?'

महेंद्र ने कहा - 'उन्हें मैं अपने लिए जरूरी सामान मानता हूँ- वे कहीं ज्यादा वाले वर्ग में नहीं हैं...'

विनोदिनी - 'मालूम है, मगर यहाँ क्यों?'

महेंद्र - 'ठीक है, आवश्यक चीजें यहाँ नहीं सोहतीं - विनोद, इन किताबों-विताबों को उठा कर रास्ते पर फेंक देना, मैं चूँ भी न करूँगा - केवल उनके साथ मुझे भी मत उठा फेंकना।'

इतना कह कर महेंद्र थोड़ा खिसक आया और कपड़ों में बँधी किताबों की गाँठ को विनोदिनी के पैरों के पास रख दिया।

उसी गंभीर भाव से सिलाई करती हुई विनोदिनी बोली - 'भाई साहब, तुम यहाँ नहीं रहोगे।'

अपने उठते हुए आग्रह पर चोट पा कर महेंद्र व्याकुल हो उठा। गदगद स्वर में बोला - 'क्यों, तुम मुझे दूर क्यों रखना चाहती हो? तुम्हारे लिए सब-कुछ छोड़ने का यही पुरस्कार है?'

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