उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
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रात को जब उसे पटलडाँगा के डेरे पर छोड़ कर महेंद्र अपने कपड़े और किताबें लाने घर चला गया, तो कलकत्ता के अविश्राम जन-स्रोत की हलचल में अकेली बैठी विनोदिनी अपनी बात सोचने लगी। दुनिया में पनाह की जगह काफी तो उसे कभी भी न थी, इतनी जरूर थी कि अगर एक ओर गरम हो जाए, तो दूसरी तरफ करवट बदल कर सो सके। आज लेकिन निर्भर करने की जगह निहायत सँकरी हो गई थी। जिस नाव पर सवार हो कर वह प्रवाह में बह चली है, उसके दाएँ-बाएँ किसी भी तरफ जरा झुक जाने से पानी में गिर पड़ने की नौबत।
लिहाजा बड़ी सावधानी से पतवार पकड़नी थी - जरा-सी चूक, जरा-सा हिलना-डुलना भी मुहाल। ऐसी हालत में भला किस औरत का कलेजा नहीं काँपता। पराए मन को मुट्ठी में रखने के लिए जिस चुहल की जरूरत है, जितनी ओट चाहिए, इस सँकरेपन में उसकी गुंजाइश कहाँ! महेंद्र के एकबारगी आमने-सामने रह कर सारी जिंदगी बितानी पड़ेगी। फर्क इतना ही है कि महेंद्र के किनारे लगने की गुंजाइश है, विनोदिनी के लिए वह भी नहीं।
अपनी इस असहाय अवस्था को वह जितना ही समझने लगी, उतना ही उसे बल मिलने लगा। कोई-न-कोई उपाय करना ही पड़ेगा, ऐसे काम नहीं चलने का।
बिहारी को प्रेम-निवेदित करने के दिन से ही विनोदिनी के धीरज का बाँध टूट गया था। अपने जिस उमगे हुए चुंबन को वह उसके पास लौटा कर ले आई, संसार में और किसी के पास उसे उतार कर नहीं रख सकती। पूजा के चढ़ावे की तरह देवता के लिए उसे रात-दिन ढोने के सिवा कोई रास्ता नहीं है। उसका मन कभी हथियार डाल देना नहीं जानता, निराशा वह नहीं मानती। उसका मन बार-बार उससे कह रहा था - 'यह पूजा बिहारी को कबूल करनी ही पड़ेगी।'
उसके इस अदम्य प्रेम से उसकी आत्म-रक्षा की आकांक्षा आ कर मिल गई। बिहारी के सिवाय उसके पास और कोई चारा नहीं। महेंद्र को उसने अच्छी तरह समझ लिया था। उस पर टिकना चाहो तो वह भार नहीं सह सकता - छोड़ने पर ही उसे पाया जा सकता है - पकड़ना चाहो कि भाग खड़ा होना चाहता है। लेकिन औरत के लिए जिस एक निश्चिंत, विश्वासी सहारे की नितांत आवश्यकता है, वह सहारा बिहारी ही दे सकता है। अब बिहारी को छोड़ने से उसका काम हर्गिज नहीं चल सकता।
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