उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
कुंजी किसके पास थी, यह बात उसकी जबान से न निकल सकी, लेकिन महेंद्र ने समझा। आशा जल्दी-जल्दी कमरे के बाहर निगल गई; उसे डर लगा, कहीं महेंद्र के पास ही उसकी रुलाई न छूट पड़े। अंधेरी छत की दीवार के एक कोने की तरफ मुँह फेर कर खड़ी-खड़ी उफनती हुई वह रुलाई दबा कर रोने लगी।
लेकिन रोने का ज्यादा समय न था। एकाएक उसे याद आ गया, महेंद्र के खाने का समय हो गया। तेजी से वह नीचे उतर गई।
राजलक्ष्मी ने आशा से पूछा - 'महेंद्र कहाँ है, बहू?'
आशा ने कहा - 'ऊपर।'
राजलक्ष्मी- 'और तुम उतर आईं?'
आशा ने सिर झुका कर कहा - 'उनका खाना...'
राजलक्ष्मी - 'खाने का इंतजाम मैं कर रही हूँ - तुम जरा हाथ-मुँह धो लो और अपनी वह ढाका वाली साड़ी पहन कर मेरे पास आओ - मैं तुम्हारे बाल सँवार दूँ।'
सास के लाड़ को टालना भी मुश्किल था, लेकिन साज-शृंगार के इस प्रस्ताव से वह शर्मा गई। मौत की इच्छा करके भीष्म जैसे चुपचाप तीरों की वर्षा झेल गए थे, उसी प्रकार आशा ने भी बड़े धीरज से सास का सारा साज सिंगार स्वीकार कर लिया। बन-सँवर कर धीमे-धीमे वह ऊपर गई। झाँक कर देखा, महेंद्र छत पर नहीं था। कमरे के दरवाजे से देखा, वह कमरे में भी न था - खाना यों ही पड़ा था।
कुंजी नहीं मिली, सो अलमारी तोड़ कर महेंद्र ने कुछ जरूरी कपड़े और काम की किताबें निकाल लीं और चला गया।
अगले दिन एकादशी थी। नासाज और भारी-भारी-सी राजलक्ष्मी बिस्तर पर लेटी थीं। बाहर घटाएँ घिरी थीं। आंधी-पानी के आसार। आशा धीरे-धीरे कमरे में गई। धीरे से उनके पैरों के पास बैठ कर बोली - 'तुम्हारे लिए दूध और फल ले आई हूँ माँ, चलो, खा लो!'
करुणा-मूर्ति बहू की सेवा की चेष्टा, जिसकी वह आदी न थी, देख कर राजलक्ष्मी की सूखी आँखें उमड़ आईं। वह उठ बैठीं। आशा ने अपनी गोद में खींच कर उसके गीले गाल चूमने लगीं। पूछा-'महेंद्र कर क्या रहा है, बहू!'
आशा लजा गई। धीमे से कहा - 'वे चले गए।'
राजलक्ष्मी - 'चला गया? मुझे तो पता भी न चला।'
आशा बोली - 'वे कल रात ही चले गए।'
सुनते ही राजलक्ष्मी की कोमलता मानो काफूर हो गई; बहू के प्रति उनके स्नेह-स्पर्श में रस का नाम न रह गया। आशा ने एक मौन लांछन का अनुभव किया और सिर झुकाए चली गई।
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