उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
“एक लड़की जब ठान लेती है तब, अरुणदा, वह दुःसाध्य कार्य भी कर सकती है। तुम अगर उसका चवन्नी भर ठान सकते अरुणदा, तो झट से मेरा हाथ पकड़ते और ट्रेन पर अचक कर चढ़ जाते।"
“मिंटू ! मैं तो तुम्हारे पिताजी से हाथ जोड़कर कह आया हूँ कि मैं 'गरीब' हूँ।
दाँतों के बीच होंठ दबाकर मिंटू बोली, “वह तो मैं देख ही रही हूँ। फिर भी मैंने देखना चाहा कि तुम्हारी असली दरिद्रता कहाँ है। खैर, तो तुममें साहस नहीं
“मैं स्वीकार कर रहा हूँ मिंटू। तुम्हारे लिए सुख का सिंहासन रखा है। मुझ जैसे एक अभागे के साथ अपना जीवन जोड़कर उसे बरबाद क्यों करोगी? मैं तुम्हारा बुरा नहीं चाहता हूँ।”
मिंटू का चेहरा लाल होकर तमतमाने लगा।
“तुममें इस बात को समझने की अक्ल है क्या कि क्या बुरा है और क्या भला?
"मुझमें जितनी बद्धि है उसी के आधार पर बुरा-भला समझ लेता हूँ।"
"खाक़ समझ लेते हो। तुम तुम एक कापुरुष हो।"
चारों तरफ़ लोग ही लोग। कितने लोग आ-जा रहे थे। यात्री, कुली, जमादार। ट्रेनें आ रही थीं इसीलिए भीड़ बढ़ती जा रही थी।
अरुण बेहद नर्वस हो गया परन्तु मिंटू निर्विकार खड़ी थी।
“मैं अगर तुम्हारी जगह पर होती न अरुणदा, तुम्हारे इन अत्यन्त पूजनीय ताऊ ताई को सबक सिखलाकर ही दम लेती।”।
मिंटू का ऐसा तीव्र कठोर रूप इससे पहले अरुण ने कभी देखा नहीं था।
धड़धड़ की एक आवाज़ ने पाँव तले की ज़मीन तक को हिला दिया।
क्या यह केवल ट्रेन जाने की आवाज़ भर थी? या आमने-सामने खड़े दो प्राणियों के मन से उठ रही थी यह आवाज़?
"मिंटू मुझमें सबक सिखाने की क्षमता कहाँ है? यह बात तो सच है कि वामन होकर मैंने चाँद को छूने के लिए हाथ बढ़ाया था"."
“चुप रहो। और दैन्यभाव जताने की ज़रूरत नहीं है। उचित सबक तो होगा कि ईमानदारी से हो या बेईमानी से, खूब रुपया कमाना फिर उन्हीं मियाँ-बीवी की आँखों के सामने एक तिमंजिला मकान बना डालना। फिर एक अमीर घर की सुन्दरी लड़की ब्याह कर उनके नाक के सामने रहना शुरू कर देना।"
“यह काम..", अरुण हँस दिया।
"हँसने की बात नहीं है, अरुणदा। तुम्हें धनी होना ही पड़ेगा। कम से कम मेरे घमण्डी माँ-बाप की नाक नीची करने के लिए तुम्हें अमीर बनना ही होगा।"
"और तुम?
"मैं?'
मिंटू के चेहरे पर एक कड़वी हँसी खेल गयी।
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