उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
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दनदनाती हुई एक मालगाड़ी चली गयी। इसके बाद ही एक लोकल ट्रेन छूटेगी। कुछ देर बाद दूसरी। सुबह एक के बाद एक कई ट्रेनें जाती हैं।
अरुण अपना भारी सूटकेस उठाये बढ़ता चला आ रहा था। जल्दी चल पाने के लिए बार-बार उसे सूटकेस को इस हाथ से उस हाथ करना पड़ रहा था। सहसा आँखों पर विश्वास न कर पाने की वजह से ठिठककर खड़ा हो गया।
ठीक देखा है? लेकिन गलत देखने का सवाल ही कहाँ उठता है? टिकट खरीदनेवाले काउण्टर के सामने से, लाइन के बाहर निकल आयी मिंटू।
खरीदा टिकट पर्स के भीतर रखते-रखते तेजी से आगे बढ़ आयी।
सामना होते ही तेज़ तीखी आवाज़ में हँसकर बोली, “अरे ! यह रहे हमारे वीरपुरुष ! आखिरकार रणक्षेत्र से पीठ दिखाकर भागने का कौशल ही अख्तियार कर लिया?”
अरुण ने व्यंग्य भरी इस बात को अनसुनी करते हुए चकित होकर पूछा, “तुम यहाँ?”
“मैं भी तुम्हारे साथ चल रही हूँ।"
अरुण उसके उत्ताप रहित हावभाव देखकर विचलित हुआ। बोला, “इसके मतलब?"
“मतलब बेहद सीधा-सादा है। तुम्हारे साथ ट्रेन पर चढ़कर तुम्हारे ही कन्धों पर चढ़ बैलूंगी। अभी-अभी तो टिकट खरीद कर आयी हूँ। तुम्हारे पास तो मन्थली टिकट है। मेरे पास यह टिकट है। सात बजकर पाँच मिनटवाली ट्रेन तो शायद आ भी गयी-इस पर जाना न हो सकेगा। सात बजकर बत्तीस मिनटवाली पकड़ते हैं-चलो आगे बढ़ चलो।"
अरुण ने मिंटू की तरफ़ देखा।
सहसा उसने पाया मिंटू अपूर्व सुन्दरी है। पहले कभी उसने क्यों नहीं ध्यान दिया था? परन्तु उसका चेहरा तो इस समय आनेवाली विपत्ति की ओर संकेत कर रहा है।
इस समय मिंटू का रूप निहारे, वह वक़्त कहाँ?
"मिंटू यह सब कैसा पागलपन है? छिः ! घर जाओ।"
“घर लौट जाने के लिए तो आयी नहीं हूँ। तुम्हारे साथ जाऊँगी यही तय करके आयी हूँ।”
“बच्चों जैसी बातें मत करो मिंटू। मेरे साथ जाने के कोई माने होते हैं?"
"हर समय हर कोई मानेवाला काम ही करेगा, इसके क्या माने हैं?"
"मिंटू।”
"कहो।"
“पागलपन मत करो। मैं तो इस समय मझधार में बह रहा हूँ।"
“मैं भी ऐसा ही चाह रही हूँ, अरुणदा।”
“मिंटू, मैं तुम्हारे आगे हाथ जोड़ता हूँ। घर लौट जाओ। कोई देख लेगा तो न जाने क्या सोचेगा। मेरी तो समझ में नहीं आ रहा है कि ताईजी की नज़र बचाकर तुम चली कैसे आयीं?'
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