उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
"मेरे लिए तो तुमने कह ही दिया है। सोने का सिंहासन रखा है। तो फिर तुम मुझे साथ नहीं ले जा रहे हो? फाड़ डालूँ टिकट?'।
“अरे, अरे फाड़ती क्यों हो? अभी भी वापस हो जायेगा।"
“ओहो ! यह बात भी ठीक है।” मिंटू पहले जैसे परिचित ढंग से हँसने लगी।
अरुण कुछ शंकित होकर बोला, “मिंटू, मेरी ट्रेन अभी आ जायेगी। तुम घर चली जाओ।"
"जल्दी क्या है?
"मिंटू, अच्छी लड़की-चली जाओ। मुझे बहुत बुरा लग रहा है।"
"डरो मत, अरुणदा। जैसे ही तुम ट्रेन पर चढ़ोगे मैं उसके नीचे दबकर मरूँगी इस बात के लिए मत डरो। निर्भय होकर जा सकते हो। पड़ोस की लड़की की शादी का निमन्त्रण-पत्र ज़रूर मिलेगा। इच्छा हो तो आना। अगर जी चाहे तो कमर पर तौलिया बाँध कर मछली, गोश्त, पुलाव, पूड़ी परोसने भी लग जाना। देखना, मैं शादी का जोड़ा पहने गाँठ बाँधे पति के पीछे-पीछे मोटर पर चढ़ बैलूंगी।"
"मिंटू मैं तुम्हारा भला चाहता हूँ।"
"थैक्यू ! यह तो तुम पहले भी कह चुके हो, और कितनी बार कहोगे? मैंने विश्वास कर लिया है ...बस न?”
"तुम वादा करो मिंटू अच्छी तरह से रहोगी?' मिंटू ने फिर हँसना शुरू कर दिया।
“अरे अरुणदा, तुम्हारे ये डॉयलॉग तो पचास साल पहले के बुद्ध क़िस्म के नायकों जैसे लग रहे हैं। ‘अच्छी तरह रहूँगी।' इस बात की गारण्टी तो नहीं दे सकूंगी लेकिन हाँ कभी अखबार की सुर्खियों में मेरा नाम तुमको पढ़ने को नहीं मिलेगा। मिंटू इतनी बुद्ध नहीं है, अरुणदा। ज़िन्दगी उसकी निगाहों में इतनी सस्ती नहीं है।"
अरुण विह्वल होकर देखता रहा। मिंटू में वह एक अपरिचिता को देख रहा था।
पहलेवाली हवा-सी हल्की उज्ज्वल किशोरी कब ऐसी प्रगल्भा युवती में परिवर्तित हो गयी?
अरुण ने कब से नहीं देखा था मिंटू को?
मिंटू ने ही बात को समाप्त कर दिया।
“क्या हुआ? बुद्धू की तरह देख क्या रहे हो? वह देखो तुम्हारी ट्रेन आ गयी है। इसे मिस किया तो असुविधा बढ़ जायेगी।"
"मिंटू !"
"क्या?
“वादा कर रही हो?
"कैसा वादा? ट्रेन के नीचे कटकर मरने की बात या गले में फाँसी लगाकर लटकने की बात? दियासलाई जलाकर, मिट्टी का तेल छिड़ककर मरने की बात तो नहीं कर रहे हो? निर्भय होकर जाओ। पर तुम भी मेरी एक शर्त याद रखना अरुणदा-अमीर तुम्हें बनना ही होगा। घमण्डियों को मुँहतोड़ जवाब देने की हिम्मत होनी चाहिए।"
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