उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
"किसलिए गयी थीं?"
लाबू को काठ मार गया।
“वताओ? किसलिए गयी थीं?"
लाबू पत्थर।
“उफ़ ! जाने से पहले एक बार मुझसे पूछा तक नहीं माँ? मेरे मुँह पर कालिख पोत कर ही मानी न? मेरी तो समझ में नहीं आ रहा है कि अपने इस अपर डिवीजन क्लर्क लड़के के लिए तुम राजकन्या माँगने कैसे चली गयीं। केवल राजकन्या? अब तो वह राजरानी बनने जा रही है। ओफ़ ! सब कुछ जानबूझ कर भी एकाएक तुम्हारे सिर पर यह भूत क्यों सवार हुआ माँ?"
गरजता बादल अब बरसने को तैयार था।
"ताऊजी ने तो विश्वास ही नहीं किया कि मैं कुछ नहीं जानता हूँ। मीठे-मीठे जूते मारते हुए."
चुप हो गया।
फिर सँभलकर बोला, “एकाएक तुम्हारे दिमाग में यह बात आयी कैसे माँ? ओफ़ !"
तो क्या लाबू चिल्लाकर कहे, “अरे ओ अभागे ! वह लड़की ही मेरी शरण में आयी थी, मैंने उसे आश्वासन दिया था।” परन्तु लाबू यह न कह सकी। जान रहते वह ऐसा न कर सकेगी। जब उसका बेटा ही शक्तिहीन है तब कहने से फायदा? वरना केवल प्यार के बल पर उस लड़की को अभिभावकों की बन्द मुट्ठी में से निकालकर नहीं ला सकता था?
लाबू धीरे से बोली, “एकाएक दिमाग में यह बात नहीं आयी थी बेटा। हमेशा ही मन में यह बात थी कि उस अच्छी-सी लड़की को बहू बनाकर लाऊँगी। उसके माँ-बाप के पाँव पकड़कर माँग लूंगी। केवल सुदिन की प्रतीक्षा थी। एकाएक उसकी शादी की खबर मिली तो सब गड़बड़ा गया। इसीलिए."
अच्छा यह बात क्या लाबू ने बनाकर कही थी? अथवा बनाकर कहने चली तो अपने मन को देख पायी?।
लाबू ने देखा मन में यह बात बहुत दिनों से थी। बनायी बात नहीं, सच बात थी।
अरुण थोड़ी देर तक गुमसुम बैठा रहा। उसके मन में 'प्रेमभंग' से ज़्यादा अपमानित होने का दुःख था।
ताऊजी की कही बात भूलती नहीं थी। लगा था चाबुक मार रहा है कोई।
"खुद हिम्मत करके कहने आते तो तुरन्त जवाब पा जाते बेटा। बुद्ध, सुद्ध, सीधी-सादी माँ के द्वारा यह पागलों जैसा प्रस्ताव भेजना उचित नहीं हुआ है। वह बेचारी बेकार में तुम्हारी ताईजी से अपमानित हुई।"
अरुण एकाएक बोला, “अब यहाँ से डेरा उठाना पड़ेगा। उसी ताऊजी के घर के सामने से ही स्टेशन जाना पड़ता है। दूसरा कोई रास्ता ही नहीं है।”
लाबू कुछ न बोलीं।
लाबू क्या अपमान की आग में नहीं झुलस रही थी? इसी के साथ-साथ दुखी थी कि मिंटू के साथ मुलाकात नहीं हुई।
क्या पता अभी भी आस लगाये बैठी न हो।
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