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उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ

न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2100
आईएसबीएन :9788126340842

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

 

32


सुनीला की आशंका ही सच हुई। ब्रतती की चाची फिर कभी नहीं लौटीं। अस्पताल से ही दुनिया छोड़कर चली गयीं।

ब्रतती अवाक् होकर सोचती, ऐसी एक ज़बरदस्त महिला, सुनीला के शब्दों में 'अपने को जाने क्या समझती है, जो ऐसे पाँव पटककर चलती थी मानो उसके आगे सब कीट-पतंगे हैं, वह इन्सान तुच्छ-सी एक चक्षुलज्जा से छुटकारा पाने के लिए प्राणों की ही बलि दे बैठी?

'इतनी उम्र में फिर एक...' बस इतनी-सी बात पर और कुछ नहीं?

हालाँकि उन्होंने यह नहीं सोचा होगा कि इसके लिए दुनिया ही छोड़नी पड़ जायेगी। सोचा था चुपचाप सब ठीक हो जायेगा।

ब्रतती को याद नहीं आया कि उसे अपनी चाची से कोई ख़ास प्रेम था। परन्तु इस समय उसे भी बहुत बुरा लग रहा था।

बेचारी चाची, जी भरकर अच्छी-अच्छी साड़ियाँ पहन न पायीं। कलफ़ लगी इस्त्री की तह पर तह साड़ियाँ लगी हई हैं आलमारी में। साथ ही ढेरों नयी साड़ियाँ भी रखी हैं।

एकाएक उसे बरामदे के बीचोंबीच बाँधी गयी रस्सी पर टॅगी चाची की गीली साड़ियों का ध्यान आया। साड़ियों के नीचे पानी टपकता रहता था। सुनीला कहती थीं, “झूठ-मूठ के लिए कपड़ों को भिगो-भिगोकर फैला देती है जिससे उसे हमारा मुँह न देखना पड़े।"

माँ की बात सोचकर भी ब्रतती उदास हो जाती। उसकी माँ इतनी साधारण क्यों है? उसकी माँ न तो है निर्भर करने योग्य, न ही श्रद्धायुक्त प्रेम पाने योग्य।

गौतम और अत्री ने ‘भवेश भवन' से सम्बन्ध तोड़ लिये थे। और जो भी आता था, अनियमितता आ गयी थी आने में उनके। केवल सुकुमार ही रोज आता था और भवेश के लटके कपड़ों के सामने खड़े होकर सारे दिन के काम का ब्यौरा पेश करता था। चाय मँगाकर पीता, उदय के साथ गप्पें हाँकता।

उदय सुकुमार को कहता, “पगलाबाबू।"

सुकुमार पूछता, "तुझे अपनी माँ की याद नहीं आती है उदय?"।

“आये भी तो क्या कर सकता हूँ? बस वह सुख से होगी यही सोचकर खुश हो लेता हूँ। कुछ न सही, खाने-पीने का तो आराम है।"

“यह तूने कैसे जाना?" .

"जानता हूँ। वह चाचा अच्छा इन्सान है। माँ की हमेशा इज्जत करता था। पर हाँ, जी करता है कि कोई मेरे बाप का खून कर दे।"

“ऐं! यह क्या कह रहा है?"।

“जो मन कर रहा है वही कह रहा हूँ। ऐसे बुरे इन्सान को पृथ्वी पर रहने का कोई हक़ नहीं।”

इस मोहल्ले के अनेकों ऐसे घर हैं जहाँ नलों में पानी नहीं आता है। कॉरपोरेशन की व्यवस्था ऐसी ही होती है। कुछ पानी भरनेवाले, डीप ट्यूबवेल से पानी ला-लाकर हर घर में सप्लाई करते हैं। उदय जाने कैसे उस दल में भिड़ गया है। बाल्टी भर-भर के पानी पहुंचाता है।

अर्थात् किसी तरह से भी अपने पेट भरने भर की कमाई वह कर ही लेता है।

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