उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
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अच्छा, लाबू नामक उस लड़की का क्या हुआ?
लाबू को महिला कहने की इच्छा नहीं होती है। न जाने क्यों लड़की ही लगती है वह। शायद महिला सुलभ गम्भीरता उसमें नहीं है इसलिए।
और उस दिन क्या हुआ?
जिस दिन लाबू ने मन ही मन सोचा, 'बेटा अरुण कुमार ! अब मैं तुमसे डरने वाली नहीं। मैं जानती हूँ क़ानून अपने हाथों में लेना।"
उस दिन तो वह सचमुच ही बालिका लग रही थी। लग रहा था उसे राज्य मिल गया है।
उसे तो यही सवाल आता है जिसका जवाब दो और दो चार होता है।
'तुम्हारी लड़की को मेरे लड़के से प्रेम हो गया है अब तुम भाग कर जाओगे कहाँ?
लेकिन फिर भी लड़की का नाम तो ले नहीं सकती है घुमा-फिराकर ही बात चलानी है।
लड़के को खिला-पिलाकर सुलाने के बाद भी, आधी रात तक वह किस तरह से बात शुरू करेगी, रिहर्सल देती रही।
आज भी लड़का गम्भीर था।
'ठीक है बच्चे, तुम्हारे मुँह पर हँसी मैं लाकर ही रहूँगी।'
लाबू ने दो-दो चार का ही हिसाब जाना था। वह नहीं जानती थी कि दो और दो बगल-बगल रखो तो बाईस हो जाता है।
मिंटू की माँ आसमान से गिरी। “एकाएक तुम पागल-वागल हो गयीं क्या नयी बहू?
लाबू की सारी सजी-सजायी गोटें बिखर चुकी थीं। बड़ी मुश्किल से वह बोली, “लड़की को जन्म से देखती आ रही हूँ, दीदी। बड़ी ममता हो गयी है। मन ही मन सोचा था, अरुण ज़रा सँभल जाये तो आकर मिंटू को आपसे माँग लूँगी।"
मिंटू की माँ ज़रा मीठी हँसी हँसकर बोलीं, “तुम्हारा अरुण और कितना सँभलेगा नयी बहू?
फिर शायद नयी बहू का चेहरा देखकर दया आ गयी। कुछ नरम पड़ी। बोलीं, “और अगर ऐसा कुछ होना है तो यह भी तो देखना पड़ेगा कि समय कितना लग जायेगा। इधर एक इतना अच्छा रिश्ता आया है कि इन्होंने भी बचन दे दिया है। तुम्हीं सोचो इससे इनका सिर कितना झुकेगा। मिंटू तुम्हारी लड़की के बराबर है। अरुण के साथ भाई-बहन जैसा सम्बन्ध है। सहसा उसे बहू बनाने का शौक कैसे पैदा हो गया?'
लाबू लाचार हुई क्योंकि वह अनुभव कर रही थी, छिपकर कोई उनकी बातें ज़रूर सुन रहा है। लाबू अगर अभी से हार मानकर हथियार डाल देगी तो वह क्या सोचेगी?
इसीलिए लाबू बोली, “भाई-बहन की तरह हैं लेकिन सचमुच तो भाई-बहन नहीं हैं। मुझे लगता है दोनों में..."
“क्या हुआ, चुप क्यों हो गयीं? उन दोनों में क्या है? लव? ज़रा नाटक उपन्यास पढ़ना कम करो नयी बहू। बेकार की बातें दिमाग से झाड़ डालो और ठण्डी होकर बैठो। चाय पीओगी? ओ रे मिंटू, अपनी नयी चाची को चाय तो पिला।"
लाबू उठकर खड़ी हो गयी। बोली, “नहीं दीदी। अभी पीकर आयी थी।"
परन्तु मूर्ख लाबू की सज़ा क्या यहीं खत्म हुई?
लाबू का प्राणप्रिय बेटा कहर बनकर नहीं फट पड़ा क्या?
"माँ ! तुम उस घर की ताईजी के पास कल गयी थीं?"
लाबू अपने आप में नहीं रही।
लाबू के चेहरे का रंग ही बदल गया।
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